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26/11 Unforgiven

जैसा कि पुस्तक का शीर्षक अपने आप मेँ अभिव्यक्त करता है कि 26/11 का बर्बरिक आतँकवादी हमला अक्षम्य है| लेखन की विधा एक कहानी की तरह है| कहानी का मुख्य पात्र एक भारतीय है जो सँवेदनशील,घोर पारिवारीक और कोमल हृदय का है| नायक के पिता की सैन्य पृष्ठभूमि उसे सेना के उस स्वरुप की अनुभूति करवाती है जो एक सामान्य नागरिक की कल्पना से परे है कि सेना के अधिकारियोँ और सैनिकोँ के बीच किस तरह का पारिवारीक सूत्र बँधा होता है|

कहानी का नायक विक्रम अपने परिवार अपनी पत्नी कीर्ति और बेटी मेघा को 26/11 ताज पर हुए हमले मेँ खो देता है| विक्रम 26/11 का प्रत्यक्षदर्शी है| यह कहानी नायक के जीवन मेँ घटित इस घटना के बाद उसके भीतर चलने वाले कोहराम और उसके जीवन मे घटित घटनाओँ के बारे मेँ विस्तार से समझाती है|

मूल रुप से पुस्तक अँग्रेजी मे लिखी गयी है| पुस्तक की भाषा बहुत सहज, सरल और निर्बाध गति से बहने वाले गद्य की तरह है, लेखन की शैली पाठक को कहानी के पात्र से जोडे रखती है| कहानी का हर पात्र घटना के आस पास बडी सुँदरता के साथ गढा गया है| सारे पात्र कहानी के केँद्र से अँत तक बँधे हुए रहते है| पाठक स्वयँ को सभी से जुडा हुआ महसूस करता है| कहानी “सँवाद प्रधान” है| सारे पात्र एक दूसरे से सँवाद करते हुए कहानी की पृष्ठभूमि को आगे बढाते हुए प्रतीत होते है जिससे पाठक का मन कहानी के केँद्रिय विषय से जुडा हुआ रहता है|

कहानी का मुख्य पात्र विक्रम अन्य पात्रोँ से सँवाद शैली से जुडा है,मेजर जनरल अविनाश, जाकिर, फरजाना के मध्य के सँवाद बडे रोचक और प्रभावी है, कहानी मेँ लेखक कई बार स्वयँ से बात करते हुआ दिखाई देता है|

कहानी का मुख्य पात्र “विक्रम”, कहानी के दूसरे मुख्य पात्र मेजर जनरल अविनाश प्रभाकर के साथ भारतीय डिप्लोमेसी पर कडे प्रश्न पुछता हुआ दिखाई देता है, लेखक ने बडी सुँदरता के साथ एक सामान्य भारतीय नागरिक के मन की पीडा को इसमेँ अभिव्यकत किया है, लेखक सफल दिखाई देता है भारतीय जन मानस को प्रस्तुत करने मेँ|

“Vikram, for your information, we have not fought a single war with Pakistan for Kashmir.”

इस एक पँक्ति के साथ लेखक ने आतँकवाद की समस्या पर अपना गहरा मँथन प्रस्तुत किया है|

कहानी का एक रोचक पात्र जाकिर समय समय पर कहानी के नायक विक्रम को आतंकवादी हमले 26/11 से सँबँधित सूचनायेँ देता हुआ बताया गया है| जाकिर के माध्यम से लेखक ने एक एसे नौजवान को चित्रित किया है जो अपनी युवावस्था मेँ भ्रमित होकर गलत रास्ते पर चला जाता है और फिर उसके पास वापस जीवन की मूलधारा मेँ लौटने का कोई रास्ता शेष नही रह पाया है|

लेखक की कलम भारत और पाकिस्तान की राजनीतिक परिस्थितियोँ का बडी खूबसूरती से विश्लेषण करती है| भारत एक शुदध लोकताँत्रिक देश है जहाँ सेना का भारतीय राजनीति और विदेश नीति मे हस्तक्षेप नगण्य होता है| लेखक स्वयँ सैन्य सेवाओँ मे रह चुके है शायद इसीलिये ये टीस कि भारत की पराक्रमी सेना के सिपाही और अनुशासित सैन्य अधिकारी के जीवन का आर्थिक पहलु भारत के राजनीतिज्ञोँ की तुलना मे कितना ओछा है| और वहीँ दूसरी तरफ पाकिस्तान का सैन्य अधिकारी अपने देश के व्यवसाय मेँ प्रभूत्व रखता है मने रसूखदार है| पाकिस्तान की राजनीति सेना के हाथ मेँ है|

“In our case our country has an army. In their case, their army has country”, कहानी मे एक रिटायर्ड सैन्य अधिकारी का यह वाक्य बहुत प्रभावी है|

26/11 के बर्बरिक आतंकी हमले के पश्चात भारत की असँवेदनशील राजनीति पाकिस्तान को करारा जवाब देने की बजाय देश के भीतर ही “हिँदू आतँकवाद” शब्द को गढकर और देश के सबसे बडे साँस्कृतिक राष्ट्रीय सँगठन ‘राष्ट्रीय स्वयँसेवक सँघ” पर निराधार आरोप लगाने मेँ व्यस्त हो गयी, इस बात से आहत लेखक ने कहानी के नायक के व्यक्तित्व को एक अनपेक्षित स्वरुप मे परिवर्तित कर चोटिल आत्मसम्मान को पाठकोँ को समझाया है कि कैसे एक घोर पारिवारीक और भावुक व्यकित आतँकवादी हमलोँ मे अपने परिवार को खोकर आहत होता है|

“आहत हूँ,भीतर से क्रुद्ध

विवश बनकर बैठ गया हूँ

क्या कहुँ हे बुद्ध !”

26/11 पर देश केवल न्याय नही वरन “बदला” चाह रहा था,लेखक मनीष जैटली द्वारी लिखित इस कहानी का पात्र ये भाव बार बार अभिव्यक्त करता हुआ दिखाई देता है|

लोकतँत्र और डिप्लोमैसी के नाम पर आतँकवाद को मिलने वाला एक मौन प्रोत्साहन आतँकी हमलो की दूसरी साजिशोँ को कैसे सफल होने देता है,ये बात भी लेखक ने बडे सुँदर ढग से समझायी है|

शाँति औऱ अमन,ये शब्द कैसे खलते होँगे आतँकवाद के शिकार परिवारो और आतँकी हमनोँ मे शहीद होने वाले सैन्य परिवारोँ को| ये प्रश्न लेखक ने हम सभी के लिये इस विचार के साथ छोडा है कि क्या हर सामान्य भारतीय नागरिक को अपना प्रतिशोध स्वयँ लेना होगा?

आतँकवाद की जडे कितनी गहरी और कितने व्यापक स्तर पर भारत भर मेँ फैल गयी हैँ और हमारी सुरक्षा व्यवस्था कितनी मजबूत है, कहानी का नायक ये बार बार पाठक को बताता जा रहा है,सूचना तँत्र की विवशता और जानकारियोँ की उपलब्धता होने पर भी भारतीय सुरक्षा नीति लोकतँत्र औऱ डिप्लोमैसी के नाम पर कितनी विवश है,येलेखक बताने से कहीँ चूके नही है|

हालाँकि आतँकवाद से निपटने की लेखक की कहानी दुस्साहसी नायक की कहानी है परँतु एक सामान्य नागरिक कै हृदय की पीडा श्री मनीष जी जैटली ने बहुत सुँदर ढँग से अभिव्यक्त की है|

26/11 की उस दुर्भाग्यपूर्ण रात मेँ ताज और ओबेरोय के स्टाफ का साहस और अपने मेहमानोँ की सुरक्षा के प्रति सँवेदनशीलता के प्रति जहाँ लेखक कृतज्ञता व्यक्त करता हुए नजर आ रहे है वहीँ एक मुँबईकर की हमले के तुरँत बाद सामान्य जीवन जीने की विवशता पर भी क्षोभ प्रकट नजर करते आ रहे है|

लेखक की यह पँक्ति सभी को आतँकवाद पर आत्ममँथन पर प्रेरित करती है,

“We as a nation had somehow begun to romanticize being victims”.

मनीष जी जेटली की यह पुस्तक हम सभी को सोचने और विचार करने को विवश कर देती है कि भारत की राजनीति आतँकवाद के प्रति सँवेदनशील कब होगी? केवल श्रद्धाँजलि कार्यक्रमोँ की एक श्रृँखला और औपचारिक चर्चाओँ से ऊपर उठकर आतँकवाद विरोधी नीति बनाने की प्रबल आवश्यकता है|

एक सामान्य भारतीय नागरिक होने की वजह से मैँ शालिनी,लेखक को बहुत बहुत बधाई देती हँ कि आतँकवाद से पीडित भारतीय जन मानस की विकलता को अपनी लेखनी के माध्यम से बहुत भावपूर्ण ढँग से आपने उकेरा है|

पुस्तक को पढने के बाद एसा विश्वास बनता है कि ये पुस्तक सभी नीति निर्धारकों निश्चित रुप से प्रेरित करेगी|

एक सक्षम औऱ सशक्त आतंकवादी विरोधी नीति बनाने हेतु देश की सुरक्षा और विदेश नीति पर मनन कर देश की सँप्रभुता,अखँडता और गौरव का मान बनाये रखने हेतु दृढ सँकव्पित होँने को|

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