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जरासंध, कालयवन, विश्वकर्मा और श्रीकृष्ण: महाभारत के महत्वपूर्ण उपदेश

चलिए हरिवंश से जुड़े कुछ प्रसंग देखते हैं। इनमें तीन लघुकथाएं हैं जिनमें से दो व्यक्ति विशेष के साथ जुड़ी हुई हैं और तीसरी एक नगर से संबद्ध है। आश्चर्यजनक बात यह है कि हरिवंश का संबंध हरि के साथ कम ही है किंतु यह विश्लेषण फिर कभी करते हैं। चलिए इस लेख में इन तीन लघुकथाओं के बारे में जानते हैं।

यह सर्वविदित है कि जरासंध द्वारा मथुरा पर बारंबार किए गए आक्रमणों के चलते श्री कृष्ण नागरिकों को मथुरा त्याग कर पश्चिमी तट पर स्थित द्वारावती में स्थानांतरित करने के पक्ष में थे। वृष्णियों का भी यही मत था कि जरासंध को समाप्त करना शत वर्षों में भी संभव नहीं था। इसी वजह से उन्होंने मथुरा छोड़ा और द्वारावती में नया नगर बसाया। महाभारत के सभापर्व में जरासंध वध का प्रसंग आता है जिसके अनुसार श्री कृष्ण ने भीमसेन को निमित्त बनाकर जरासंध का वध कर दिया।

इससे पहले कि मैं जरासंध के विषय में रसप्रद चर्चा का आरंभ करूँ, हम एक दूसरे व्यक्ति के विषय पर चर्चा कर लेते हैं जिसका नाम कालयवन है, कालयवन को भी यादव कभी पराजित नहीं कर पाए। क्या उसे वृष्णियों और अंधकों द्वारा भी पराजित नहीं किया जा सकता था? चलिए कालयवन की कथा के पन्ने पलटते हैं।

महाभारत के लगभग सभी प्रसंगों की तरह कालयवन की कथा भी मानवीय भावनाओं, अहंकार, वरदान और अनपेक्षित परिणामों का मिश्रण है। हरिवंश के अनुसार वृष्णियों और अंधकों के गुरु ऋषि गार्ग्य थे। उन्हें मथुरा में नपुंसक कह कर अपमानित किया गया और परिणामस्वरूप ऋषि ने नगर त्याग दिया। मथुरा छोड़ने के पश्चात ऋषि पुत्रप्राप्ति के लिए इच्छुक थे किन्तु उनके साथ उनकी पत्नी नहीं थीं।

प्रतिशोध की ज्वाला में जलते ऋषि ने रुद्र से वरदान स्वरूप एक पुत्र मांग लिया जो वृष्णियों और अंधकों का अन्त करने के लिए सक्षम था। हालांकि इस बात का हम केवल अनुमान लगा सकते हैं क्योंकि हरिवंश के किसी भी संस्करण में यह स्पष्ट नहीं है कि ऋषि ने ऐसी शक्तियों वाले पुत्र का वरदान मांगा था। जब यवनराज को गार्ग्य के इस वरदान के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने ऋषि को अपने राज्य में राज्याश्रय दे दिया। यवनराज स्वयं पुत्रप्राप्ति की कामना रखते थे। यवनराज के अंतःपुर में अन्य महिलाओं के साथ गोपालि नामक एक अप्सरा भी स्त्रीरूप धर के रहती थी, इसी अप्सरा ने ऋषि पुत्र को जन्म दिया। यही बालक यवनराज की मृत्यु के पश्चात सिंहासनाधीश बना और कालयवन के नाम से ख्यात हुआ। जब कालयवन ने मथुरा पर आक्रमण किया तब श्री कृष्ण ने नगरजनों को स्थलांतर का आदेश दिया।

किन्तु यहाँ कहानी में एक रसप्रद मोड़ आता है। श्री कृष्ण अब भी कालयवन की शक्ति का परीक्षण करना चाहते थे और मानसिक युद्ध खेलना चाहते थे। श्री कृष्ण परखना चाहते थे कि यदि वृष्णियों ने युद्ध से पलायन नहीं किया तो इन परिस्थितियों में कालयवन युद्ध जीतने के लिए स्वभाव और क्षमता रखता है? श्री कृष्ण ने प्रतीकात्मक रूप से एक टोकरी में विषधर भेजा। कालयवन ने कैसे जवाब दिया? युद्ध काल में दूत की हत्या करना या उपेक्षा करना सेनापति के कौशल की कमी को दर्शाता है। अंततः श्री कृष्ण ने जो चाल चली थी उसका जवाब उसी भाषा में दिया गया। यह परीक्षा बाहुबल की नहीं, बुद्धिबल की थी। कालयवन ने चींटियों से भरे पात्र को टोकरी के पास रख दिया और चींटियों ने विषधर सर्प को समाप्त कर दिया। संदेश स्पष्ट था – यदि श्री कृष्ण स्वयं को सर्प के समान मानते थे, तो कालयवन चींटियों की भांति सर्प को समाप्त करने के लिए सक्षम था। कालयवन एक अपराजेय शत्रु था जिसे रणक्षेत्र में पराजित नहीं किया जा सकता था।

मथुरा से पलायन ही अब अन्तिम समाधान था।

तथापि कालयवन की मृत्यु श्री कृष्ण के हाथों से नहीं हुई पर वो कालयवन की मृत्यु के निमित्त अवश्य बने। नागरिकों को मथुरा से द्वारावती ले जाने के पश्चात श्री कृष्ण मथुरा लौट आए। मधुसूदन की खोज में कालयवन प्रशस्त था। श्री कृष्ण युक्तिपुर्वक कालयवन को मुचकुंद की गुफा में ले गए। मुचकुंद दक्षिण कोशल के राजा थे, जिन्होंने असुरों के विरुद्ध लड़ाई में देवताओं की सहायता की थी और कृतज्ञ देवताओं ने उन्हें वरदान दिया था कि उनकी निद्रा में बाधा डालने वाला उनके नेत्राग्नि की ज्वाला से जलकर भस्म हो जाएगा। श्री कृष्ण का पीछा करते हुए कालयवन ने इस अंधेरी गुफा में प्रवेश किया जहां मुचकुंद निद्रारत थे। कालयवन ने मुचकुंद की निद्रारत आकृति को श्री कृष्ण समझा और उन्हें लात मार दी। क्रुद्ध मुचकुंद जागे और अपनी नेत्राग्नि से कालयवन को भस्म कर दिया।

जरासंध और कालयवन दोनों ही प्रकरणों में श्री कृष्ण ने ऐसे शत्रुओं का सामना किया जिन्हें वृष्णियों से पराजित नहीं किया जा सकता था। जरासंध को पराजित कर वध करने के लिए श्री कृष्ण ने भीमसेन को चुना जबकि कालयवन को समाप्त करने के लिए उन्होंने मुचकुंद को माध्यम ऐसा नहीं है कि कृष्ण ने कभी सीधे युद्ध में शत्रु का सामना नहीं किया, कंस, शाल्व और नरकासुर ऐसे ही उदाहरण हैं जिन्हें कृष्ण ने पराजित किया और समाप्त किया। जरासंध और कालयवन के प्रसंग इस बात का प्रमाण हैं कि श्री कृष्ण बुध्दिबल और बाहुबल दोनों के महारथी थे। श्री कृष्ण विष्णु का अवतार होने के बावजूद मनुष्य थे इसलिए जो कौशल उनके पास थे वे अन्य मनुष्यों के लिए भी संभव हैं और शायद श्री कृष्ण के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण सीख यही है।

जी हाँ, आपका अनुमान सही है, तृतीय कथा द्वारावती के विषय में है। इस कथा में भी दो पात्र हैं, श्री कृष्ण और विश्वकर्मा। श्री कृष्ण ने न केवल द्वारावती की ओर प्रस्थान का कार्य पूरा किया बल्कि नगर के निर्माण में भी निर्णायक भूमिका निभाई। उन्होंने वास्तुविदों को दुर्ग, मार्ग, मंदिर और प्रवेश-द्वार निर्माण करने के लिए निर्देशित किया। द्वारका सर्वश्रेष्ठ नगर बने यह सुनिश्चित करने के लिए श्री कृष्ण ने वास्तुविद विश्वकर्मा देव को निमंत्रित किया तथा उन्होंने स्वर्गलोक के अमरावती के समकक्ष नगर के निर्माण का प्रस्ताव दिया।

विश्वकर्मा ने श्रीकृष्ण की बात का अनुमोदन किया किन्तु उन्होंने श्रीकृष्ण से यह भी कहा कि यह नगर आपके सभी नागरिकों को समाहित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। उन्होंने प्रस्तावित किया कि यदि समुद्र नगर निर्माण के लिए जगह खाली कर देते हैं तो नगर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध हो पाएगा। श्रीकृष्ण ने समुद्र से बारह योजन भूमि प्रदान करने का अनुरोध किया और समुद्र ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रीकृष्ण ने न सिर्फ द्वारिका नगरी के वास्तुकारों की योजना और निर्देशन में सक्रिय भाग लिया और विश्वकर्मा को बुलाया बल्कि उन्होंने नगर की क्षमता के विषय में वास्तुविदों की चेतावनी और सुझावों को सुना और इस समस्या से उबरने का मार्ग निकाला। समुद्रतट पर बसाए गए बारह योजनों को दशकों बाद पुनः ले लिया गया फिर भी एक बात स्पष्ट है कि कृष्ण एक ऐसे व्यक्ति हैं जो जानते हैं कि वह खुद क्या कर सकते हैं, वह दूसरों से किन कार्यों में सहायता ले सकते हैं और वह जरुरत पड़ने पर विशेषज्ञों की मदद भी ले सकते हैं। इस आधुनिक युग में हम सभी के लिए यह एक महत्वपूर्ण पाठ है।

(यह लेख अभिनव अग्रवाल द्वारा लिखित पहले आंग्ल भाषा में प्रस्तुत किया गया है)

(Image credit: francescagalloway.com)

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