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मनु स्मृति – महिलाओं की प्रकृति (भाग- II)

पिछले लेख में, हमने देखा कि किस तरह से मनु स्मृति के सबसे अधिक उपयोग में लाये जाने वाले श्लोकों में से एक का उपयोग मनु स्मृति को महिलाओं के प्रति मिसोजिनिस्ट यानि दुर्भावनापूर्ण होने के आखिरी प्रमाण के रूप में किया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि वह श्लोक पुरुषों के कर्तव्यों के बारे में बता रहा है न कि महिलाओं के प्रति कुछ भेदभावपूर्ण या अपमानजनक कह रहा। इस लेख में, हम मनु स्मृति से एक और बदनाम किए गए श्लोक को देखेंगे, जिसके ऊपर महिलाओं के प्रति अपमानजनक होने का लांछन लगाया जाता है।

स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्।
अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः॥
(मनु स्मृति 2-213)

इस श्लोक का आम तौर पर इस प्रकार अनुवाद किया जाता है: “इस दुनिया में पुरुषों को बहकाना महिलाओं का स्वभाव है; उस कारण से, विद्वान कभी भी महिलाओं के साथ बिना संरक्षण के नहीं रहता है।“ इस श्लोक के ऊपर यह आरोप लगाया जाता है कि यह महिलाओं को नीचा दिखाता है, क्योंकि यह महिलाओं को साजिश रचने, बहकाने और पुरुषों को फंसाने के रूप में चित्रित करता है।

अब, हम यह देखते हैं, कि क्या मनुस्मृति में भी इसका वास्तविक अर्थ है वही है जिसका इस पर आरोप लगाया जाता है या फिर क्या इस श्लोक का सार कुछ अलग है।

इस श्लोक के शब्द क्रम कुछ इस प्रकार हैं: “इह नराणां दूषणम् एषः नारीणां स्वभावः। अतः अर्थात् विपश्चितः प्रमदासु न प्रमाद्यन्ति” जिसका सरल शब्दों में अनुवाद कुछ इस प्रकार है: “यहाँ, पुरुषों को लुभाना महिलाओं का स्वभाव है। इसलिए, विद्वान जनों को महिलाओं के साथ में लापरवाह नहीं होना चाहिए।“

आइये अब हम देखते हैं कि मनुस्मृति के इस श्लोक पर प्रख्यात टीकाकारों का क्या कहना:

मनु स्मृति पर सबसे प्रसिद्ध टिप्पणीकार में से एक है मेधातिथि के अनुसार: एषा प्रकृतिः स्त्रीणां यत् नराणाम धैर्यव्यावर्तसङ्गान् हि स्त्रियः पुरुषान् व्रताच्च अवयेयुः। अतः अर्थात् अस्मात् हेतोः न प्रमाद्यन्ति = दूरतः एव स्त्रियः परिहरन्ति। प्रमादः स्पर्शादिकरणं वस्तुस्वभावः अयं यत् तरुणी स्पृष्टा कामकृतं चित्तसंक्षोभं जनयति। यत्र चित्तसंक्षोभः अपि प्रतिषिद्धः, तिष्ठतु तावत् अपरो ग्राम्यधर्मसम्भ्रमः। प्रमदाः=स्त्रियः”

इस सार का अर्थ कुछ इस प्रकार है, “यह महिलाओं का स्वभाव है कि वे अस्थिर कर देती है, यहां तक कि जो पुरुस अपने आचरण में दृढ़ हैं उन्हें भी। उस कारण से, पढ़ेलिखे पुरुष महिलाओं में लापरवाही नहीं करते हैं यानी महिलाओं से दूरी बना कर बचते हैं। यहाँ प्रमाद: का अर्थ है स्पर्श करना, आदि है। यह जमीनी हकीकत है कि अगर किसी लड़की का स्पर्श किया जाता है, तब उससे वासना से बनी मानसिक अशांति पैदा होती है। जहां मानसिक अशांति भी निषिद्ध है, वहाँ अन्य यौन क्रियाओं की बात ही अलग है (ग्राम्यधर्म: = यौन क्रिया / संभोग)। प्रमदाः = महिलाओं ।

दूसरे शब्दों कहे तो में, यह श्लोक वास्तव में पुरुषों को निर्देश दे रही है कि, चूंकि, वे जैविक रूप से महिलाओं के प्रति आकर्षित होते हैं और चूंकि, महिलाओं के साथ किसी भी करीबी संपर्क जैसे कि स्पर्श, आदि उनके मन में यौन इच्छाओं को उकसा सकता है, इसलिए उन्हें महिलाओं के साथ बातचीत में बहुत सावधान रहना चाहिए।

यानि पुरुषों को हमेशा महिलाओं के साथ बातचीत में संयमित और सम्मानजनक होना चाहिए, अन्यथा, वे महिलाओं को कुछ नुकसान पहुंचा सकते हैं या उन्हें असुविधाजनक स्थिति में डाल सकते हैं।

इससे स्पष्ट होता है कि श्लोक के पहले भाग में महिलाओं की प्रकृतिका उल्लेख महिलाओं के लिए अपमानजनक संदर्भ में नहीं है। यथार्थ यह है कि इसे जैविक वास्तविकता के संदर्भ लिखा गया है कि पुरुष और महिला दोनों अपने विपरीत लिंग के प्रति स्वाभाविक रूप से आकर्षित हो जाते हैं।

इस बात को पुष्ट करते हुए, एक अन्य टिप्पणीकार सर्वज्ञनारायण लिखते हैं,” स्वभाव एष स्त्रीणाम् अनिच्छन्तीनामपि दर्शनेन रागेण दुष्यन्तीति नराणां दूषणं पुरुषेषु दोषापादकत्वं नारीणां स्वभावः। न प्रमाद्यन्ति तदनीक्षणादौ कार्येण अप्रमत्ता भवन्ति”।

अर्थात: “यह महिलाओं की प्रकृति है, हालांकि वे अपनी दृष्टि से अनायास ही वासना की इच्छा नहीं करती हैं। कभी लापरवाह नहीं होना चाहिए। कभी भी उनकी नजरों के क्रियाकलापों आदि के कारण गलती न करें।

इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि मनु स्मृति या यह श्लोक में महिलाओं पर कोई दोष नहीं लगा रहा है, न ही किसी अपमानजनक संदर्भ में कही गयी है। इसके बजाय, टिप्पणीकार स्पष्ट करते है कि पुरुषों के महिलाओं के प्रति आकर्षित होने के कारण महिलाओं का कोई दोष नहीं है।

इसके बजाय, यह जैविक प्रकृति है कि पुरुष महिलाओं को देखकर आकर्षित हो जाते हैं। यानि अगर किसी की गलती को इंगित किया जाना चाहिए, तो यह पुरुषों और महिलाओं की प्रकृतिक संरचना को किया जाना चाहिए।

इसके अलावा, यह श्लोक पुरुषों को अपनी वासना को नियंत्रित न कर पाने और लापरवाह हो जाने की ओर इंगित करता है तथा उन्हें महिलाओं के प्रति हमेशा संयमित और सम्मानपूर्ण होने की हिदायत देता है।

यह श्लोक कहता है कि, विद्वान पुरुष कभी भी गलतियाँ नहीं करता है (विपश्चितः न प्रमाद्यन्ति), अर्थात् महिलाओं के प्रति अनुचित और अनादरपूर्ण व्यवहार नहीं करता है।

यहाँ, गलतफहमी और गलत व्याख्या का कारण दूषणम्शब्द है। इस श्लोक की पहली पंक्ति “स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्” का अनुवाद महिलाओं की प्रकृति पुरुषों को भ्रष्ट करने” के रूप में किया गया है, जो “दूषणम्शब्द की उत्पति के अर्थ को नहीं समझने के कारण पूरी तरह से गलत अनुवाद है। “दूषणम्” शब्द की उत्पत्ति मूल “दुष वैकृत्य” से हुई है जहां दुष का अर्थ बदलना या भ्रष्ट करना होता है।

संस्कृत के व्याकरण के अनुसार दूषणम् का विशेष अर्थ है। यह शब्द प्रत्यय से बनता है, जिसका प्रत्यय के रूप में तब प्रयोग होता है जब अपने कार्यों के माध्यम से मन में अरुचि पैदा करनेका अर्थ बताना होता है तथा उन कार्यों के प्रति “मन में रुचि” पैदा करने का अर्थ बताना हो जिन्हें नहीं करना होता है।” (वा चित्तविरागे पाणिनि सूत्र 6-4-91).

अर्थात्, “दूषणम्शब्द एक मानसिक स्थिति को संदर्भित करता है, जिसमें एक व्यक्ति अपने धर्म के कर्तव्यों से दूर हो जाता है और अधर्म यानि निषिद्ध कार्यों की ओर झुक जाता है। यहाँ अधर्म का अर्थ अनादर दिखाने, अनुचित व्यवहार करने, ईवटीजिंग, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, आदि जैसे कार्यों से है।

इसलिए, यह कथन “स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्“ महिलाओं के खिलाफ कुछ भी व्यक्त नहीं करता है और इसे कुछ इस प्रकार से समझना चाहिए, “महिलाओं (और पुरुषों) की जैविक प्रकृति के कारण धार्मिकता का त्याग करने के लिए बाध्य हो जाते हैं और मन में उत्पन्न होने वाली मजबूत यौन इच्छाओं के कारण अधर्मी कार्यों में लिप्त हो जाते है।”

यानि इस प्रकार से देखे तो यह श्लोक वास्तव में पुरुषों की उस गलतीकी ओर इंगित करती है जिसके कारण वे अपनी राह से भटक जाते हैं। इस कारण से, श्लोक का दूसरा भाग “अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः” यह याद दिलाती है कि महिलाओं के साथ बातचीत में सावधानी बरती जाए।

आगे भी जारी रहेगा

(यह लेख रामानुज देवनाथन् द्वारा लिखित पहले आंग्ल भाषा में प्रस्तुत किया गया है)

(Image credit: S Ilayaraja- fineartandyou.com)

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