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तन्त्रयुक्ति- एक प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक-सैद्धान्तिकग्रन्थ निर्माण पद्धति- भाग -१

उपोद्घात

तमिलनाडु और केरल में सार्वजनिक और निजी संग्रहालय में लगभग एक लाख पांडुलिपियां हैं। उनमें से १२,२५० पांडुलिपियां विज्ञान से संबंधित हैं। इनमें से ३५०० स्वतंत्र विज्ञान ग्रंथ हैं। इनमें से केवल २३० प्रकाशित हुए हैं।

डॉ. के.वी.शर्मा, जिन्होंने पांडुलिपियों का सर्वेक्षण करने वाली गण का नेतृत्व किया, जिसका परिणाम ऊपर दिया गया है, कहते हैं – “इसका अर्थ होगा कि भारत के विद्वान और इतिहासकार इन सात प्रतिशत ग्रंथों को इस देश में निर्मित संपूर्ण वैज्ञानिक ग्रंथों के रूप में माना है… ”
(Sharma and Shastri, 2000, Introduction)

यह प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथों के बारे में ज्ञान की स्थिति है। कम ज्ञात तथ्य यह है कि भारत में वैज्ञानिक और सैद्धांतिक ग्रंथों के निर्माण के लिए एक पद्धति थी। यह तन्त्रयुक्ति का पद्धति है।

विद्वान तन्त्रयुक्ति का वर्णन निम्नानुसार करते हैं,

  1. ‘विज्ञान पर संस्कृत ग्रंथों में कार्यप्रणाली’ – के.वी.शर्मा (Sharma,2006, p.31-32)
  2. ‘वैज्ञानिक तर्क के रूप’ – एस.सी.विद्याभूषण (Vidyabhushana, 1970, p.24)
  3. ‘ग्रंथ की एक योजना’ – शामा शास्त्री(Shastry, 1915, 459)
  4. ‘विचार करने की विधि, व्याख्या के नियम’ – एसथर सोलोमोन (Solomon, 1976, p.73)
  5. ‘औपचारिक तत्व जिन्होंने वैज्ञानिक कार्य को रूप दिया’ – गेर्हार्ड ओबरहमर (Obberhamer,1967-68 p.600)
  6. संस्कृत में सैद्धांतिक-वैज्ञानिक ग्रंथों की पद्धति – डबल्यू.के.लेले (Lele, 2006, Cover page)
  7. ‘कार्यप्रणाली और तकनीक, जो वैज्ञानिक ग्रंथों की सही और समझदारी से रचना और व्याख्या करने में सक्षम बनाता है’. – एन.ई.मुत्तुस्वामी (Muthuswamy, 1974,p.i)
  8. विज्ञान के लेखन में कार्यप्रणाली – सुरेन्द्र नाथ मिठ्ठल (Mittal, 2000, p.22)

उपरोक्त कथन पर्याप्त रूप से तन्त्रयुक्ति की परिचय देता है।

तन्त्रयुक्ति व्युत्पत्ति

तन्त्रयुक्ति शब्द में दो घटक पद हैं – तन्त्र और युक्ति। इस का विग्रह होगा – तन्त्रस्य युक्तिः। (तन्त्र का युक्तियां)

तंत्र के विभिन्न अर्थ हैं। उस शब्द की एक परिभाषा है (अजितागमः, .११५) –

तनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमन्त्रसमन्वितान्।
त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते॥

अर्थात् – तंत्र वह है जो विषयों और अवधारणाओं पर विस्तृत विचार करता है और रक्षण भी करता है।

चरकसंहिता (1.30.21.31-32) मे भी तंत्र शब्द पर्याय देखने को मिलते हैं –

तत्रायुर्वेदः शाखा विद्या सूत्रं ज्ञानं शास्त्रं लक्षणं तन्त्रमित्यनर्थान्तरम्॥

तंत्र – आयुर्वेद, वेदों की एक शाखा, शिक्षा, सूत्र, ज्ञान, एक शास्त्र और लक्षण के पर्यायवाची है ।

इस प्रकार व्युत्पत्तिगत और पारंपरिक प्रयोग इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि तंत्र का उपयोग साहित्य के एक व्यवस्थित कार्य को दर्शाने के लिए भी किया जाता है।

और युक्ति –

“युज्यन्ते सङ्कल्प्यन्ते सम्बध्यन्ते परस्परमर्थाः प्राकरणिके अभिमतेऽर्थे विरोधव्याघातादिदोषजातमपास्यानयेति युक्तिः।” (Sharma, 1949, p.1)

“जो अभिप्रेत अर्थ से अनौचित्य, विरोधाभास जैसे दोषों को दूर करता है और पूरी तरह से अर्थों को एक साथ जोड़ देता है वह युक्ति है।”

इस प्रकार समस्तपद तंत्र-युक्ति उन उपकरणों को दर्शाता है जो ग्रन्थ की संरचना में व्यवस्थित तरीके से विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में मदद करते हैं।

तन्त्रयुक्तियों की आवलि

तन्त्रयुक्ति प्राचीन ग्रंथों में एक सूची के रूप में दिया गया है। कुछ ग्रंथ उनके आवलि देतें है और उसके साथ उनको, परिभाषित और उनका प्रयोग स्थल प्रदर्शित करते हैं जबकि अन्य केवल सूची देते हैं। सबसे पुरानी उपलब्ध बत्तीस तन्त्रयुक्तियों की सूची और विश्लेषण अर्थशास्त्र में है। वह सूची इस प्रकार है- (अधिकरण १५)

अधिकरणम्(विषय), विधानम् (विषयों की सूची), योगः (वाक्यों का जोडना), पदार्थः (पद के अर्थ०), हेत्वर्थः(कारण), उद्देशः (उल्लेख), निर्देशः (विस्तार), उपदेशः (सलाह), अपदेशः (सन्दर्भ), अतिदेशः (अनुप्रयोग), प्रदेशः (सूचना), उपमानम् (उदाहरण), अर्थापत्तिः (निहितार्थ), संशयः (सन्देह), प्रसङ्गः (प्रसङ्ग), विपर्ययः(विपरीत), वाक्यशेषः (एक वाक्य पूरा करना), अनुमतम् (सहमति), व्याख्यानम् (ज़ोर देना), निर्वचनम्(व्युत्पत्ति), निदर्शनम् (अधिक दृष्टान्त ), अपवर्गः (अपवाद), स्वसंज्ञा (पारिभाषिक शब्द), पूर्वपक्षः(आक्षेप), उत्तरपक्षः(सिद्धान्त), एकान्तः (अनिवार्य नियम), अनागतावेक्षणम् (भविष्य कथन का संदर्भ), अतिक्रान्तावेक्षणम्(एक पिछले वक्तव्य का संदर्भ),नियोगः(सीमित करना), विकल्पः (विकल्प), समुच्चयः(मेल), ऊह्यम् (ऊहन करना) इति।”

तन्त्रयुक्तियों की विशेषताएं

तन्त्रयुक्तियों के बारे में चार महत्वपूर्ण विशेषताएं बताई जा सकती हैं। वे हैं –

  1. तन्त्रयुक्ति सभी वैज्ञानिक और सैद्धांतिक ग्रंथों की रचना पद्धति के रूप में 1500 से अधिक वर्षों के लिए प्रभावशाली थी।
  2. तन्त्रयुक्ति का अखिल भारतीय प्रसार था ।
  3. तन्त्रयुक्ति में एक व्यवस्थित ग्रन्थ की संरचना के लिए सभी मूलभूत पहलू शामिल हैं।
  4. तन्त्रयुक्ति को ग्रन्थ की आवश्यकताओं के अनुसार अपनाया जा सकता है. (Customizable)

इन चार बिंदुओं पर अगली बार हम विस्तार से विचार करने वाले हैं।

(Image credit: bukowskis.com)

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