पिछले भाग में हम आपसे चर्चा कर रहे थे कि तन्त्रयुक्ति सभी वैज्ञानिक और सैद्धांतिक ग्रंथों की रचना पद्धति के रूप में 1500 से अधिक वर्षों के लिए प्रभावशाली थी।
इस बार चर्चा करते हैं की कैसे तन्त्रयुक्ति का अखिल भारतीय प्रसार था। हम यह भी देखेंगे कि कैसे तन्त्रयुक्ति में एक व्यवस्थित ग्रन्थ की संरचना के लिए सभी मूलभूत पहलू शामिल हैं।
अखिल भारतीय प्रभाव
तन्त्रयुक्ति पद्धति का अनुप्रयोग केवल संस्कृत ग्रंथों तक ही सीमित नहीं था। प्राचीन तमिल और पाली ग्रंथ भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रभावित थे।
तमिल ग्रन्थ
(i) प्राचीन तमिल ग्रंथ, तोल्काप्पीयम में, तन्त्रयुक्तियों का वर्णन पोरुलधिकाराम के मारापियल अध्याय में सूत्र संख्या ६६५ में उपलब्ध है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र की तरह ही यह ग्रंथ भी ३२ युक्तियों को प्रस्तुत करता है। लेकिन विद्वानों की (दीक्षितर्, 1930, p.82) कहना है कि तोल्काप्पीयम के केवल २२ युक्तियां अर्थशास्त्र के युक्तियों से मेल खाते हैं। तोल्काप्पीयम की अवधि को आम तौर पर सामान्य युग से पहले, पहली या दूसरी शताब्दी बताया गया है । (Zevelebil, 147,1973)
(ii) नन्नूल एक अन्य प्रमुख तमिल व्याकरण ग्रन्थ है । यह ग्रंथ मुनि पवनन्ती द्वारा रचित है। इस ग्रन्थ में ३२ तन्त्रयुक्तियों का उल्लेख है। इस ग्रंथ में तन्त्रयुक्तियों की सूची और विवरण का क्रम तोल्काप्पीयम से भिन्न है। नन्नूल ग्रंथ का काल सामान्य युग की बारहवीं शताब्दी माना जाता है। (Swamy, 1975 p.295)
तमिल साहित्य परंपरा में अन्य ग्रंथ भी हैं जो तन्त्रयुक्तियों का उल्लेख या उपयोग करते हैं। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं, याप्परुङ्गल कारिगै (१२ वीं शताब्दी) मारन् अलङ्कारम् (१६वीं शताब्दी), इलक्कण विळक्कम (१७वीं शताब्दी), स्वामिनाथम (१८वीं या १९वीं शताब्दी) (Jayaraman, 2009, 184-191)। ये ग्रंथ काव्य, छन्दस् और व्याकरण से संबंधित हैं। जहां संस्कृत परम्परा मे, तन्त्रयुक्तियों के उपयोग का उल्लेख सामान्य युग की १२ वीं शताब्दी से आगे नहीं पाया गया, तमिल परंपरा में तो तन्त्रयुक्तियों का संदर्भ १८वीं या १९वीं शताब्दी तक उपलब्ध है।
पाली ग्रंथ
(iii) पेटकोपदेश और नेतिपकरन, ग्रंथ की रचना और व्याख्या कार्यप्रणाली पर दो पाली ग्रंथ हैं। इन को तन्त्रयुक्तिओं पर बौद्ध दृष्टिकोण के रूप में माना जाता है। (वार्डनर, 2000, p.319)। अन्य साहित्यिक परंपराओं में तन्त्रयुक्तियों से प्रभावित सिद्धांतों का अस्तित्व, तुलनात्मक अध्ययन और अनुसंधान के नए क्षेत्र को उद्घाटित करता है।
तन्त्रयुक्तियों में एक व्यवस्थित ग्रंथ की संरचना के बारे में सभी पहलुओं का समग्र प्रलेखन
तन्त्त्रयुक्ति पद्धति एक व्यवस्थित और सटीक ग्रंथ के लिए आवश्यक लगभग सभी पहलुओं को छूता है। आइए इस बिंदु पर उचित दृष्टांतों के साथ चर्चा करें।
अ. युक्तियां जो किसी कार्य की मूल संरचना को परिभाषित करने में सहायता करता है
युक्तियां -जैसे – प्रयोजनम् , अधिकरणम्, विधानम्, उद्देशः, निर्देशः – लेखक को ग्रंथ के एक प्रारूप तैयार करने में सहायता करेंगे जिसके आधार पर संपूर्ण ग्रंथ का निर्माण किया जा सके। यह वह नींव होगी जिस पर ग्रंथ की अधिरचना खड़ी होगी।
आइये देखते हैं कैसे विधानम् , जो उपरोक्त युक्तियों मे से एक, का प्रयोग अर्थशास्त्र में किया गया है –
कौटिल्य इस तन्त्रयुक्ति को इस प्रकार परिभाषित करते हैं (अधिकरण १५) –
शास्त्रस्य प्रकरणानुपूर्वी विधानम् ।
ग्रंथ के विषय विभाग क्रम को प्रस्तुत करना विधान है।
कौटिल्य इस युक्ति के अनुप्रयोग को अपने ग्रंथ में दिखाता है। उन्होंने पहले अध्याय को “प्रकरणाधिकरणसमुद्देशः” ऐसा नाम दिया हैं। अर्थात् – अध्यायों और विषयों का अध्याय (table of contents)। इसमें वे विषयों को सूचीबद्ध करते हैं (अधिकरण १) – विद्यासमुद्देशः ((विद्या के बारे में अध्याय)), वृद्धसंयोगः (बुजुर्गों और बुद्धिमानों की सहवास के बारे में अध्याय), इन्द्रियजयः (इंद्रियों पर विजय पाने के बारे में अध्याय), अमात्योत्पत्तिः(मंत्रियों की भर्ती के बारे में अध्याय), इत्यादि।
इस प्रकार युक्ति – विधान के प्रयोग से ग्रंथ के अंतर्गत जो विषय हैं, उन की सूची प्रस्तुत करके, ग्रंथ की स्वरूप का स्पष्ट चित्र प्राप्त करने के लिए पाठक को सहायता की जाती है।
आ. सिद्धांतों और नियमों को बताने के लिए युक्तियां
अनुसंधान, अवलोकन और चिंतन के आधार पर, कोई भी ग्रंथ, वैज्ञानिक या साहित्यिक, कुछ सिद्धांतों और नियमों को निर्दिष्ट करेगा। तन्त्रयुक्तियां इस पहलू को ध्यान में रखते हैं, और विभिन्न उपकरणों को प्रदान करते हैं जो उन सिद्धांतों और नियमों को प्रस्तुत करने में मदद करेंगे। ऐसे ही कुछ युक्तियां उदाहरण की तौर पर नीचे दिए गए हैं – नियोगः (अपरिवर्तनीय नियम), अपवर्गः ( अपवाद), विकल्पः (वैकल्पिक नियम), उपदेशः- निर्देश, नुस्खे, सलाह (क्या करें और क्या नहीं),
स्वसंज्ञा (पारिभाषिक शब्द)।
इस में से एक उदाहरण लेते हैं। आचार्य सुश्रुत अपवर्ग तन्त्रयुक्ति की अनुप्रयोग को परिभाषित करते हैं और इस युक्ति के प्रयोग का स्थान, (जहरीले जन्तु से जो दष्ट होते हें उन के लिए उपचार निर्धारित करने के संदर्भ में) दर्शाते है (सुश्रुत संहिता ६.६५.१८)।
“अभिव्याप्यपकर्षणमपवर्गः। अस्वेद्या विषोपसृष्टा अन्यत्र कीटविषादिति।”
एक व्यापक नियम का सङ्कोच अपवाद है। इस का विवरण- नियम है – जहर से पीड़ित व्यक्तियों को स्वेदन (पसीना निकालने की उपचार) न की जाये । और अपवर्ग- लेकिन यह कीड़े के जहर से पीड़ित लोगों पर लागू किया जाना चाहिए।
इ. विभिन्न अवधारणाओं की व्याख्या में सहायता करने वाले तन्त्रयुक्तियां
नियम या अवलोकन या सिद्धांत, जो भी हो, मात्र उसक का कथन पर्याप्त नहीं हो सकता । उन कथनों के साथ उचित स्पष्टीकरण, उस के बारे मे दूसरों का राय और विवरण होना चाहिए। तन्त्रयुक्ति प्रणाली में लेखक को अपने सिद्धांत को स्पष्ट शब्दों में समझाने में मदद करने का उपकरण है।
युक्तियां जैसे – निर्वचनम्, अपदेशः, पूर्वपक्षः, उत्तरपक्षः,दृष्टान्तः – विचार का स्पष्टीकरण और विवरण में सहायता करते हैं।
आइए हम युक्ति-अपदेश का विवरण देखें। इसको कौटिल्य ने ऐसा परिभाषित किए है (अधिकरण १५)-
एवमसमावाहेत्यपदेशः
इनहोनें ऐसा कहा – ये अपदेश हैं।
इसका प्रयोग स्वयं आचार्य कौटिल्य दिखातें हैं मंत्रिपरिषद की नियुक्ति पर चर्चा करते हुए ।
मन्त्रिपरिषदं द्वादशामात्यं कुर्वीत इति मानवाः, षोडशेति बार्हस्पत्याः,
विंशतिरित्यौशनसाः, यथासामर्थ्यमिति कौटिल्यः – मन्त्राधिकारः (अर्थशास्त्र १.१५)
मनु के अनुयायियों का कहना है कि मंत्रिपरिषद में बारह सदस्य होने चाहिए। बृहस्पति के अनुयायियों का कहना है कि यह सोलह होना चाहिए। उशनस के अनुयायियों का कहना है कि यह बीस होना चाहिए। कौटिल्य का कहना है कि यह क्षमता के अनुसार होना चाहिए।
इस प्रकार यहां हम देखते हैं कि एक निष्कर्ष निकालने के पहले अन्यों की मत का उल्लेख कैसे किया जाए।
ई. ग्रंथ में भाषा शैली को परिष्कृत करने के लिए युक्तियां
कभी-कभी एक लेखक, एक अवधारणा की व्याख्या करने के लिए उत्सुक होकर ग्रंथ को बहुत विस्तृत कर देता है और फलस्वरूप अवधारणा को अनजाने बना सकता है। इसीलिए विचारों की परिष्कृत प्रस्तुति आवश्यक है। और भाषा का बुद्धिमान उपयोग पाठकों के मन में विषय में रुचि भी पैदा करता है। अतः वैज्ञानिक और सैद्धांतिक ग्रंथ में परिष्कृत भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
भाषाशैली परिष्कार के विषय में लेखक की सहायता करने वाली तन्त्रयुक्तियों में कुछ ऐसे हैं – वाक्यशेषः,अर्थापत्तिः, समुच्चयः, अतिक्रान्तावेक्षणम्, अनागतावेक्षणम् इत्यादि।
हम एक उदाहरण पर विचार करते हैं। वाक्यशेष युक्ति को आचार्य सुश्रुत परिभाषित किए हैं (६.६५.१९)-
येन पदेन अनुक्तेन वाक्यं समाप्यते सः वाक्यशेषः।
किसी शब्द की अनुपस्थिति (जिसे समझा जाता है) में भी वाक्य का (सार्थक) पूरा होना वाक्यशेष होता हैं ।
इस के प्रयोग सुश्रुतसंहिता में कुछ ऐसा हैं (६.६५.१९)-
शिरःपाणिपादपार्श्वपृष्ठोरूदरोरसामित्युक्ते पुरुषग्रहणं विनापि गम्यते पुरुषस्येति।
“जब सिर, हाथ, पैर, बाजू, पीठ, पेट और छाती के बारे में कहते हैं” (इस वाक्य में) मनुष्य शब्द की प्रयोग के बिना भी समझा जाता है ये मनुष्य के अंग हैं ।
मानव रोगों से संबंधित वाक्यसमूह मे यदि अंगों का उल्लेख है, तो वो केवल मानव सम्बद्ध ही हो सकता है। इसीलिए वहां मानव शब्द का प्रयोग अपेक्षित नहीं होता हैं। इस प्रकार, वाक्यशेष जैसे युक्तियों के प्रयोग से अनपेक्षित शब्दों का निवारण करके भाषाशैली निष्कृष्ट हो सकती हैं।
(इस श्रृंखला का प्रथम और द्वितीय भाग)
(Image credit: bukowskis.com)
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