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मातृ तीर्थ: सिद्धपुर – भाग ४

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एक दिन तत्वमार्ग के पारदर्शी भगवान कपिल कर्मकलाप से विरत हो आसनपर विराजमान थे। उस समय ब्रह्मा जी के वचनों का स्मरण करके देवहुति ने उनसे कहा।

प्रभो! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ। अब आपकी कृपा से मेरी जन्मपरम्परा समाप्त हो चुकी है, इसी से इस दुस्तर अज्ञानान्धकार पार लगाने के लिए सुंदर नेत्र रूप आप प्राप्त हुए हैं। आप संपूर्ण जीवों के स्वामी भगवान आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अंधे पुरुषों के लिए नेत्रस्वरूप सूर्य की भांति उदित हुए हैं। देव! इन देह-गेह आदि में जो मैं मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है; अतः अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये। आप अपने भक्तों के संसार रूप वृक्ष के लिए कुठार के समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागत वत्सल की शरण में आयी हूँ। आप भागवत धर्म जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ।

विदित्वार्थं कपिलो मातुरित्थं जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजातः।

तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदन्ति साङ्ख्यं प्रोवाच वै भक्तिवितानयोगम्।।

जिनके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उन्हीं माता का ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजी के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्वों का निरूपण करने वाले शास्त्र का, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योगका भी वर्णन किया।

श्री भगवान जी ने अपने उपदेश में भिन्न – भिन्न तत्वों की उत्पत्ति का वर्णन किया, उन्होंने मोक्ष प्राप्ति का भी वर्णन करते हुए कहा

प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः।

अविकारादकर्तृत्वान्निर्गुणत्वाज्जलार्कवत्।।

माता, जिस तरह जल में प्रतिबिंबित सूर्य के साथ जल के शीतलता, चंचलता आदि गुणों का संबंध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृति के कार्य शरीर में स्थिर रहने पर भी आत्मा वास्तव में उसके सुख दुःखादि धर्मों से लिप्त नहीं होती, क्योंकि वह स्वभाव से निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है।

इस प्रकार के अनेक उपदेश सुनकर माता देवहुति जी के सामने से मोह का पर्दा हट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्य शास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान श्री कपिलजी को प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगीं।

एवं सा कपिलोक्तेन मार्गेणाचिरतः परम्।

आत्मानं ब्रह्मनिर्वाणं भगवन्तमवाप ह।।

तद्वीरासीत्पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतम्।

नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी।।

तस्यास्तद्योगविधुत मार्त्यं मर्त्यमभूत्सरित्।

स्रोतसां प्रवरा सौम्य सिद्धिदा सिद्धसेविता।।

माता देवहुति जी ने कपिलदेव जी के द्वारा बताये हुए मार्गद्वारा थोड़े ही समय में नित्यमुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान को प्राप्त कर लिया। जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में ‘सिद्धपद’ नाम से विख्यात हुआ। योगसाधन के द्वारा उनके शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गए थे। वह एक नदी के रूप में परिणत हो गयीं, जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार की सिद्धि देने वाली है।

इस क्षेत्र की महिमा बहुत विशाल है, इसकी कथा भी विस्तृत है, यहाँ केवल कुछ अंश ही प्रकट हो पाए हैं इस क्षेत्र की महिमा के। माता देवहुति जी ने संसार की सभी स्त्रीयों के कल्याण एवं मुक्ति के लिए जिन प्रश्नों को भगवान कपिल जी से पूछा तथा उनके उत्तर पाए, वे अध्यात्म ज्ञान के तत्त्व कल्याणकारी एवं जानने योग्य हैं।

सन्दर्भ: – 

  1. श्रीमद्भागवत गीता साधक संजीवनी – स्वामी रामसुखदास – गीताप्रेस गोरखपुर
  2. श्रीमद्भागवत महापुराण – गीताप्रेस गोरखपुर
  3. महाभारत खंड ६ – गीताप्रेस गोरखपुर

Image Credit: Trip Advisor

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