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हिन्दू मंदिरों में शिव – 9 – काल संहार मूर्ति

प्रातः शिव पूजा कर जब बालक मार्कण्डेय शिवालय से घर लौटा तब उसने अपने पिता मृकुंडु तथा माता मनस्विनी को नित्य की भांति ही उदास स्थिति में पाया। तरुणावस्था की चौखट पर खड़े मार्कण्डेय ने पिछले कुछ समय से अपने माता पिता को आनंदित नहीं देखा था। उसने अपने पिता से उनकी व्यथा का कारण पूछा तो प्रत्युत्तर में पिता के नेत्रों से अश्रु बह निकले।

पिता मृकुंडु ने कहा कि उनके दुःख का कारण स्वयं मार्कण्डेय है। मार्कण्डेय के जन्म से पहले, निःसंतान मृकण्डु ने पुत्र प्राप्ति के लिए शिव का अनुष्ठान किया था और शिव इससे प्रसन्न भी हुए थे लेकिन भगवान शिव ने वरदान देने से पूर्व मृकुंडु के समक्ष दो विकल्प रखे थे। या तो वरदान से प्राप्त पुत्र ‘शतायु मूर्ख’ होगा या फिर ‘अल्पायु विद्वान’। मृकुंडु ने वरदान में विद्वान पुत्र मांगा और अब उस पुत्र की मृत्यु का समय निकट आ चुका था।

पिता की चिंता का कारण सुनते ही मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि वह इस समस्या का निराकरण करेगा। कठोर तपस्या से उसने ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और ब्रह्माजी ने उसे जीवन रक्षक महामृत्युञ्जय मंत्र का रहस्य बताया।*

मार्कण्डेय वापिस घर लौटा और मंत्र जाप करते हुए काल की प्रतीक्षा करने लगा। अंततः सोलहवां जन्मदिन आते ही परीक्षा की घड़ी आ गई। शिवालय में लिंगार्चा कर रहे मार्कण्डेय के ऊपर यमदूतों की भयावह छायाएँ मंडराने लगीं। निर्भीक तरुण महा मृत्युञ्जय का जाप करता रहा।

यमदूतों ने पाश फेंके किन्तु व्यर्थ, यमदूतों ने जाल फेंके किन्तु व्यर्थ। यमदूतों के सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि जिस मनुष्य को मृत्यु का भय नहीं उसे बिना भयभीत किए कैसे मारा जाए? सभी प्रयासों के विफल होने के पश्चात उन्होंने अंततः यमराज का आवाह्न किया।

एक सोलह वर्षीय बालक को डराने में असमर्थ रहे यमदूतों से वह बड़े ही निराश हुए। यमलोक से महिषवाहन पर सवार हो कर यमराज पृथ्वी पर आए।

विकराल रूप धारण कर यमराज शिवपूजन में मग्न तरुण मार्कंडेय के सामने प्रकट हुए। स्वयं यमराज का साक्षात्कार होने पर किसी का भी धैर्य जवाब दे देगा, यह तो फिर भी सोलह वर्ष का तरुण था।

मार्कंडेय ने सामने स्थित शिवलिंग का आलिंगन कर लिया। वह सतत शिव-जाप किए जा रहा था। मार्कंडेय का अल्पायु होना विधि का विधान था। यमराज अपने कर्तव्यों का निर्वहन मात्र कर रहे थे।

यमराज ने काल-पाश फेंक कर मार्कंडेय को बांध दिया। भगवान शिव इस स्थिति में अपने भक्त को देख कर क्रोधित हो गए।

एक बड़े कड़ाके से शिवलिंग के दो भाग हुए और पद्मपीठ पर जटा मुकुट धारी रक्तवर्णी शिव प्रकट हुए। त्रिशूल, वरद मुद्रा (अथवा परशु), हिक्का सूत्र / शुचि मुद्रा, विस्मय मुद्रा में चतुर्भुज शिव अत्यंत भयावह प्रतीत हो रहे थे।

यमराज कुछ समझ पाते उससे पहले त्रिनेत्र शिव ने बाएं पैर से लात मार कर उनकी छाती पर अपना त्रिशूल रख दिया। यमराज मरणासन्न अवस्था में भूमि पर लोट गए।

अचानक हुए प्रतिघात से विस्थापित हुए करण्ड मुकुट धारी यमराज का पाश धरा का धरा रह गया और अंजलि मुद्रा में उन्होंने शिव का आधिपत्य स्वीकार किया।

एलोरा की दशावतार गुफा और विश्वप्रसिद्ध कैलाश मंदिर में इसी दृश्य को हू-ब-हू चित्रित किया गया है। दुर्भाग्यवश कैलाश मंदिर का कालारि-मूर्ति शिल्प अतिशय खण्डित अवस्था में है।

कुछ समय बाद चेतना की स्थिति में यमराज को अपनी भूल का भान हुआ। प्रकृति के नियमों से प्रतिरक्षित शिवभक्तों पर यमपाश का क्या ही असर होता! शिव ने मार्कंडेय को ‘चिरंजीवी भवः’ का आशीर्वाद दिया। शिवकृपा से अल्पायु मार्कंडेय चिरंजीव हुए।‌

Thanjavur big temple tanjore

(उपरोक्त चित्र तंजावुर के प्रसिद्ध राजराजेश्वर मंदिर का है।  इसमें शिव की एक ओर लिङ्ग से लिपटे भयभीत मार्कण्डेय तथा दूसरी ओर  हाथों में पाश धारण किये यम का चित्रण किया गया है।)

चतुर्भुजं त्रिनेत्रं च जटामकुटसंयुतम् ।
उद्धतं दक्षिणं पादं वामपादं तु कुञ्चितम् ॥

व्याघ्रचर्माम्बरोपेतं तीक्ष्णनासोग्रदंष्ट्रकम् ।
दक्षिणे तु करे शूलं सूचिहस्तं तु वामके ॥

परशुं दक्षिणे हस्ते नागपाशं तु वामके ।
अधोमुखं भवेच्छूलं दृष्टिर्वै कालदेहके ॥

अपरे तु द्विहस्तौ तु कटकाविति कीर्तितौ ।
दोस्समं कटकाग्रं तु द्य्वन्तरं तु यवं भवेत् ॥

सभी शिवागमों में इस प्रसंग शिल्प का विवरण मिलता है। उपरोक्त वर्णन पूर्वकारणागम के एकादशपटल में मिलता है।‌ तमिल मान्यतानुसार तंजावुर में स्थित तिरूक्कदवुर स्थान पर यह प्रसंग घटित हुआ था।

Kala Samhara Murty at Ellora (Google)

कामिकागम में शिव के हाथों में नागपाश का उल्लेख किया गया है। इसके उपरांत एक ध्यानाकर्षक बात यह है कि नवताल प्रमाण में यम की उंचाई शिव के नाभि से उपर नहीं होनी चाहिए। कामिकागम के अनुसार भस्म विभूषित शिव का चित्रण लिंगोद्भव मूर्ति के समान होना चाहिए।

तंजावुर शैली के मंदिरों में कालांतक शिव का निरूपण विशिष्ट रूप में किया जाता है इसमें भूमि पर लेटे हुए यम पर शिव नृत्यरत प्रतीत होते हैं। तंजावुर शैली में शिव हाथों में मृग, कपाल, त्रिशूल एवं परशु धारण करते हैं।

इस कथा में शिव यम का अंत करते हैं। यहां यम एक पात्र मात्र नहीं हैं, यहां यम को काल के स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है। काल का अंत होने का अर्थ है समय का अंत, समय का अंत मतलब जन्म, मृत्यु, जरा एवं व्याधि सब का अंत। सरल शब्दों में कहें तो शिव काल को समाप्त कर के अपने भक्तों के जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त कर देते हैं। जन्म-मृत्यु से मुक्ति अर्थात, मोक्ष।

मार्कंडेय का समावेश सप्त चिरंजीवियों में नहीं किया गया किन्तु इस प्रसंग के पश्चात उन्हें चिरंजीवियों की सूची में समाविष्ट किया गया है। हिंदू मान्यताओं में दिर्घायु निरोगी जीवन के लिए प्रातःकाल में चिरंजीवियों का स्मरण शुभफलदाई माना गया है।

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः ।

कृपः परशुरामश्चैव सप्तैते चिरंजीविनः ॥

सप्तैतान् स्मरेन्नित्यम् मार्कंडेयम् तथाष्टमम् ।

जीवेद्‌वर्षशतं सोऽपि सर्वव्याधिविवर्जितः ॥

हिंदू दर्शन में जब चीरंजीवी, मृत्युञ्जय, अमर्त्य और कालांतक जैसे शब्दों का बहुतायत प्रयोग होता है इन सभी शब्दों में फर्क समझना बहुत ही आवश्यक है। काल संहार शिव की यह कथा इन्हीं शब्दों को उदाहारण सहित व्याख्यायित करती है।

* आगमों, पुराणों तथा लोकोक्तियों में इस प्रसंग का वैविध्यपूर्ण वर्णन मिलता है।

Featured Image: Kala Samhara – Raja Ravi Varma

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