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रामात् नास्ति श्रेष्ठ – भाग १

राजा रवि वर्मा

चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से भारतीय नव वर्ष का आरम्भ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन सृष्टिका आरम्भ हुआ था। एक अन्य कारण से भी यह समय अथवा चैत्र शुक्ल नवरात्रि महत्वपूर्ण है। इन शुभ नवरात्रि की नवमी को भगवान विष्णु के सातवें अवतार प्रभु श्री राम का जन्म हुआ था। राजा दशरथ को चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी। राम का जन्म शुक्ल पक्ष की नवमी को पुनर्वसु नक्षत्र में, कर्कट लग्न में हुआ। भरत का जन्म पुष्य नक्षत्र में, मीन लग्न में हुआ और लक्ष्मण व शत्रुघ्न का जन्म सार्प नक्षत्र अर्थात आश्लेषा नक्षत्र में हुआ। श्री राम के जन्म के समय सभी पाँच मुख्य ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में व लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विद्यमान थे।

साध्वी समान दशरथ की पटरानी कौशल्या ने प्रसव काल के पूर्ण होने पर ग्यारहवें मास में तमोगुण को दूर करने वाला पुत्र प्राप्त किया। यह मान्यता कई ग्रंथो में वर्णित है कि यद्यपि भगवान विष्णु एक ही रूप हैं किन्तु लोक कल्याण और देवताओं व ब्रह्मा को कहे वचनों के अनुसार विष्णु चार रूपों में विभक्त होकर कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के गर्भ में प्रविष्ट हुए, जिसके पश्चात क्रमशः राम, भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न का जन्म हुआ। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में अठारहवें सर्ग में आता है।

राम के नामकरण के लिए कालिदास ने रघुवंशम् में कहा है:

राम इत्याभिरामेण वपुषा तस्य चोदित:

नामधेय गुरुश्चक्रे जगत्प्रथममङ्गलम्॥

रमने योग्य अथवा मनोहर शरीर देख कर, ऐसे शरीर से प्रेरित होकर गुरु ने जगत का प्रथम मंगल नाम अर्थात जगत का कल्याण करने में युक्त ऐसा नाम ‘राम’ ही रखा। जिसमें मनोहर प्रवृत्ति निमित्त है या जो मनोहारी का लक्षण बताता है। राम के नाम की व्याख्या करते हुए कहा जाता है – ‘रमन्ते योगिन: अस्मिन्’ – योगी जिसमें रमण करते हैं, वह राम हैं।

केवल भारतीय संस्कृति व पौराणिक इतिहास की दृष्टि से ही नहीं, संस्कृत भाषा का अभ्यास करते समय भी कहा जाता है – ‘रामात् नास्ति श्रेष्ठ:’ – राम से श्रेष्ठ कुछ नहीं! रामभक्तों से पूछें या इतिहासकारों से, इसी मान्यता को प्रायः सभी स्वीकारते भी हैं। ऐसी श्रेष्ठ संतति की प्राप्ति राजा दशरथ व कौशल्या को यूँ ही नहीं हुई थी। उस दिव्य आत्मा की प्राप्ति के लिये करे गये यज्ञ, उसके प्रसाद आदि का वर्णन रामायण में मिलता है।

इस अवसर पर साझा करने योग्य एक रोचक तथ्य यह भी है की 1954 में महाराजा सयाजी राव यूनिवर्सिटी (M S University), बड़ौदा में, प्रोफेसर गोविंदलाल भट्ट की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गयी थी जिसका उद्देश्य मूल रामायण की लिखित पांडुलिपियों का संकलन, एकत्रिकरण था। कितनी ही प्रतियों में से 46 प्रतियों का चयन प्राचीनतम और मूल रामायण की प्रतियों के रूप में हुआ था। लिखित रामायण की प्राचीनतम पांडुलिपि (हस्तलिखित प्रति) नेपाल के बीर पुस्तकालय से प्राप्त हुई थी जिसका लेखन काल 1020 ईस्वी के आसपास सिद्ध हुआ था। 

राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ के द्वारा राजा राम जैसे श्रेष्ठ पुत्र अथवा संतति की प्राप्ति करी थी। संतान प्राप्ति के लिए किया गया पुत्रेष्टि यज्ञ भारत के प्राचीनतम विज्ञानों में से एक ‘गर्भ विज्ञान’ का भाग है। गर्भ विज्ञान के अंतर्गत संतति के संकल्प, कोष विभाजन, लिंग निर्धारण से लेकर, शिशु व भ्रूण (fetus) विकास की आदर्श स्थिति, दशा, काल, उत्तम समय, आहार-विहार, औषधि आदि का विस्तृत वर्णन है। यह वर्णन वेदों, उपनिषदों, आयुर्वेद की संहिताओं (कौमार्यभृत्यम् शाखा, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय) व पौराणिक ग्रंथों में उल्लेखित है।

बालकाण्ड, बारहवें सर्ग का दूसरा श्लोक बताता है-

तत: प्रसाद्य शिरसा तं विप्रं देववर्णिणम्।

यज्ञ वर्यामास संतानार्थं कुलस्य च।।

महाराज दशरथ ने ऋषि ऋष्यश्रृंग के पास जा उन्हें प्रणाम किया और वंशवृद्धि के लिए होने वाले पुत्रेष्टि यज्ञ में देवतुल्य ऋषि को यज्ञ के लिए वरण किया।

उद्धृत ग्रंथ:

आर्ष रामायण – श्री वाल्मीकि

रघुवंशम् – महाकवि कालिदास

गर्भ विज्ञान शोधकार्य – पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री जी, वाराणसी

छान्दोग्योपनिषद

वृहदारण्यक उपनिषद

उपनिषद रहस्य – महात्मा नारायण स्वामीजी महाराज, पण्डित भीमसेन शर्मा

पुत्रेष्टि यज्ञ – पण्डित सुरेंद्र शर्मा गौड़

Featured Image: Raja Ravi Varma (Source – Google)

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