प्राचीन शिक्षा प्रणाली में गुरुकुल एक प्रकार का विद्यालय हुआ करता था। गुरुकुल प्रणाली एक प्राचीन शिक्षा पद्धति है। वैदिक युग से ही गुरुकुल अस्तित्व में हैं। इनका मुख्य उद्देश्य ज्ञान विकसित करना तथा शिक्षा पर अत्यधिक ध्यान केंद्रित करना था। गुरु अपने छात्रों को ध्यान, योग, औषधि, विज्ञान तथा अन्य मानकों के साथ प्रशिक्षित करते थे।
यह सर्वविदित है कि यूरोप, मध्य पूर्व व पुर्तगाल जैसे अन्य देशों के लोग गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के लिए भारत आए थे। आज भारत में केवल कुछ ही गुरुकुल बचे हैं या कहे तो न के बराबर हैं। एवम जो हैं वे अपने मूल स्वरूप में नहीं हैं।
गुरुकुल जहाँ विद्यार्थी
“गुरु गृह पढ़न गए रघुराई।
अलप काल विद्या सब पाई॥”
इस सुंदर चौपाई में गुरुकुल शिक्षा की स्पष्ट झलक मिलती है। राम ने ऋषि वशिष्ठ के गुरुकुल में रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार पाण्डवों ने ऋषि द्रोण के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी।
गुरुकुल में छात्र एकत्रित होते तथा अपने गुरु से वेद, उपनिषद, शास्त्र, जीवन शिक्षा आदि सीखते थे। छात्रों के साथ उनके सामाजिक मानकों के बावजूद समान व्यवहार किया जाता था। छात्रों को गुरु के परिवार का एक सदस्य ही माना जाता था। गुरु का तात्पर्य आचार्य या शिक्षक से है। गुरुकुलम प्रणाली ने एक नई परंपरा प्राप्त की जिसे गुरु-शिष्य परंपरा के रूप में जाना जाता है।
गुरुकुल प्रणाली का मुख्य उद्देश्य
आध्यात्मिक विकास, आत्म–संयम, सामाजिक जागरूकता, व्यक्तित्व विकास, बौद्धिक विकास, चरित्र निर्माण, ज्ञान तथा संस्कृति का संरक्षण, योग, आयुर्वेद, विज्ञान आदि की शिक्षा देना गुरुकुल व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य रहा है।
गुरुकुलों में छात्रों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता था।
वासु- 24 वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने वाले।
रुद्र- 36 वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने वाले।
आदित्य- 48 वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त करने वाले।
गुरुकुल प्रणाली आज से दो सौ वर्ष पूर्व संपूर्ण भारत की एकमात्र शिक्षा प्रणाली थी। छात्र गहन शिक्षा के साथ अपनी शिक्षा प्राप्त करते थे। न केवल शिक्षा बल्कि उन्हें उनके सुसंस्कृत एवं अनुशासित जीवन के लिए आवश्यक पहलू भी सिखाए जाते थे। छात्र भ्रातृत्व के साथ गुरुकुल की छत के नीचे मिलजुलकर रहते थे तथा वहां मानवता, प्रेम और अनुशासन का पाठ सिखते थे।
प्राचीन भारतीय काल में अध्ययन अध्यापन के प्रधान केंद्र गुरुकुल हुआ करते थे, जहाँ दूर-दूर से ब्रह्मचारी विद्यार्थी, अथवा सत्यान्वेषी परिव्राजक अपनी अपनी शिक्षाओं को पूर्ण करने जाते थे। वे गुरुकुल छोटे अथवा बड़े सभी प्रकार के होते थे। परंतु उन सभी गुरुकुलों को न तो आधुनिक शब्दावली में विश्वविद्यालय ही कहा जा सकता है तथा न उन सबके प्रधान गुरुओं को कुलपति ही कहा जाता था। स्मृतिवचनों के अनुसार,
‘मुनीनां दशसाहस्रं योऽन्नदानादि पोषाणात। अध्यायपति विप्रर्षिरसौ कुलपति: स्मृत:।’
स्पष्ट है, जो ब्राह्मण ऋषि दस हजार मुनि विद्यार्थियों का अन्नादि द्वारा पोषण करते हुए उन्हें विद्या प्रदान करता था, उसे ही कुलपति कहते थे।
गुरुकुल एक व्यापक अध्ययन केंद्र था जहाँ छात्रों को माता, पिता, अग्रजों एवं शिक्षकों का सम्मान करने की भारतीय शिक्षा दी जाती थीं। कुल मिलाकर, प्राचीन प्रणाली ने इस गुरुकुलम प्रणाली के लिए एक बड़ा सम्मान प्राप्त किया। जातकों, चीनी यात्री ह्वेवनेसांग के यात्रा विवरणों में प्राचीन भारतवर्ष की इस गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है और यह संपूर्ण विश्व को भलीभाँति ज्ञात है।
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