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प्राचीन भारतीय विज्ञान – भाग २

पिछले भाग में आप पढ़ रहे थे कि भारत के कई मंदिरों में (विशेष रूप से विष्णु और उनके विभिन्न स्वरूपों को समर्पित मंदिरों में) भगवान को मीठे दूध और दूध से बनी मिठाइयों का भोग लगाने की परंपराएँ हैं, जहाँ दूध को पहले उबालना होता है। आइये उसके पीछे के कारण जानने की कोशिश करते हैं।

माँ ने यह भी समझाया कि खाना पकाने और खाना ग्रहण करने की अनेक प्रथाएं वनस्पति विज्ञान, शरीर रचना विज्ञान और यह दोनों एक दूसरे के साथ कैसे प्रतिक्रिया करते हैं, इसकी गहरी समझ पर आधारित थीं। जैसे कि वर्ष के विशिष्ट समय के दौरान विशिष्ट सामग्री का उपयोग, शरीर में वात, पित्त और कफ के संतुलन के अनुसार कुछ प्रकार के भोजन के सेवन पर प्रतिबंध, या किसी शारीरिक स्थिति (जैसे गर्भावस्था, मासिक धर्म, इत्यादि)के अनुसार खान पान।

मैं भारत में प्राचीन काल से ही चली आ रही इस सूक्ष्म वैज्ञानिक समझ पर चकित था। यह बात माँ को बताई तो वे मुस्कराते हुए बोलीं कि उन्हें वास्तव में भारतीय वैज्ञानिक परंपरा पर गर्व है। उनके गर्व को देखते हुए मुझे उन्हें चिढ़ाने कि सूझी और मैंने प्रश्न किया – हमारे महाकाव्य, पुराण और प्राचीन साहित्य अद्भुत अस्त्र-शस्त्रों, उड़ने वाले रथों और अन्य ऐसी विस्मयकारी वस्तुओं के उल्लेखों से भरे पड़े हैं। निश्चित रूप से ये किसी अति कल्पनाशील या किसी प्रतिभावान कवि की रचनात्मकता की उत्पत्ति थीं? पीढ़ियों बाद भी परस्पर विरोधी विचारधारा के लोग एक-दूसरे के साथ इन चमत्कारिक वस्तुओं की वास्तविकता पर वाद विवाद करते रहते हैं।

माँ फिर से मुस्करा दीं और मैं जान गया कि मेरा पासा उलटा पड़ गया है। उन्होंने मुझसे पूछा कि इन विस्मयकारी वस्तुओं से, भले ही वे सच हों, क्या मेरे जीवन में कोई फर्क पड़ा? जवाब स्पष्ट रूप से नकारात्मक था। क्या दो हजार साल पहले एक आम आदमी के दैनिक जीवन में कोई प्रभाव पड़ा होगा? उत्तर अभी भी नकारात्मक था। फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आयुर्वेद से कोई प्रभाव पड़ा होगा? हाँ। वास्तुशास्त्र से? गणित से? हाँ, निश्चित रूप से। खगोल या ज्योतिष विज्ञान के बारे में क्या? इस विषय में मेरे मन में संशय था, परंतु उन्होंने समझाया कि प्राचीन काल में खगोल विज्ञान का दैनिक जीवन की गतिविधियों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान था जैसे ऋतु के अनुसार बीज बोना, फसल काटना, इत्यादि। मैं इस बात को नकार तो नहीं सकता था कि विज्ञान की इन धाराओं ने निश्चय ही एक आम आदमी के जीवन को सरल और सुखद बनाया है। पर मैं इतनी सुलभता से हार भी नहीं मानने वाला था।

और अंधविश्वास का क्या – मैंने पूछा? मान लिया कि सूतक एक प्रकार का क्वारंटाइन है, लेकिन अन्य प्रथाएं – जैसे माहवारी के समय महिलाओं को अलग रखना, बांझ स्त्रियों को एक बरगद के पेड़ की परिक्रमा करवाना, चौमासे के समय विवाह या किसी अन्य शुभ कार्य को न करना – क्या ऐसे अंधविश्वास हमें अज्ञानता की ओर नहीं धकेलते? प्रगतिशील और सुखद-सहज जीवन में बाधाएं नहीं डालते?

इस पर माँ ने मुझ से जो प्रश्न किया उस पर मैं मूक रह गया। क्या एक ऐसी सभ्यता जो चिकित्सा, वास्तुशास्त्र, गणित, खगोल शास्त्र आदि विज्ञानों में अपनी समकालीन सभ्यताओं से कोसों आगे थी, जिन्होंने पृथ्वी से सूर्य की दूरी की गणना की थी, जिन्हें मानव शरीर रचना कि इतनी सूक्ष्म समझ थी कि वे प्लास्टिक सर्जरी और अंग प्रत्यारोपण (organ transplant) कर सकते थे, क्या ऐसे लोग आधारहीन अंधविश्वासों को मान कर उन्हें बढ़ावा दे सकते हैं? इसकी संभावना कम ही लगती है। तो फिर इन मान्यताओं के पीछे क्या कारण हो सकता है?

Featured Image Credits: Pinterest (by Rajakumari Kumari)

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