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आयुर्वेद की कथा – द्वितीय भाग – चरक संहिता

आयुर्वेद को जानने के लिए वृद्ध-त्रयी का अभ्यास अनिवार्य है – चरक संहिता, सुश्रुत संहिता तथा अष्टांग हृदयम्। वृद्ध त्रयी अर्थात वह तीन ग्रंथ जो प्राचीन ऋषि-मुनियों ने लिखे हैं। इसी प्रकार से लघु-त्रयी है, जो बाद के काल के ग्रंथ हैं – शारंगधर संहिता, माधव निदान तथा भावप्रकाश!

चरक संहिता

चरक को भारतीय चिकित्सा विज्ञान का जनक माना जाता है। पहले भाग में हमने चरक द्वारा अग्निवेश तंत्र के पुनर्गठन और सम्पादन (compilation) के बारे में बात करी थी। जिसके फलस्वरूप चरक संहिता का निर्माण हुआ। उस काल में चरक ने इतने सुव्यस्थित ग्रंथ की रचना करी।

अग्निवेशे कृते तन्त्रे, चरक: प्रति संस्कृते।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्। (च.सि.१२)

अर्थात अग्निवेश ने तंत्र की रचना करी परंतु चरक ने उसका प्रति संस्कार किया। यहाँ (चरक संहिता में) है तो अन्य कहीं हो सकता है, जो यहाँ नहीं है वह कहीं नहीं मिलेगा ।

चरक दो प्रकार के हैं: एक परंपरा का नाम है और दूसरा ऋषि प्रकति का उत्तम ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति भी चरक है,  उन्होंने प्रज्ञा व्यक्तियों का एक बहुत बड़ा संगठन खड़ा किया, उसका नाम भी चरक है (जैसे शंकराचार्य एक परंपरा का भी नाम है जो उनकी पीठ से चलता है और समकालीन शंकराचार्य गुरु व्यक्ति रूप भी हैं) । क्योंकि ‘चरैवेति चरैवेति’, वे अनेक स्थानों पर जाते थे, सदा चलायमान रहते थे इसलिए उनका नाम चरक पड़ा । कई जगह वर्णन है की चरक और पतंजलि, दोनों एक ही हैं। जिन्होंने योगसूत्र लिखा है, उन्होंने ही अपना एक उपनाम चरक रखा है। चरक संहिता में उनके व्यक्ति विशेष पहचान के लिए कुछ नहीं मिलता है। किन्तु  इतिहास के अनेक ग्रंथ देखे जाएँ तो ये भी पता चलता है कि वह राजा कनिष्क के यहां राजवैद्य थे।

ये भारत की विशेषता रही है कि जो भी ग्रंथ लिखे गए वह ज्ञान को उपलब्ध ऋषियों द्वारा लिखे गए । चरक मुनि एक पारगामी बुद्धि के मुनि थे। इसीलिए चरक संहिता भी ‘अथ भूतो दयां प्रति’ अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति दयाभाव से संकलित करी गयी।

चरक संहिता की रचना के कुछ एक हज़ार साल बाद ऋषि दृढ़वल ने उसका प्रतिसंस्कार किया । उन्होंने इसके 141 अध्याय किये। चरक पर कई विद्वानों ने, मनीषियों ने कार्य किया है। कई व्याख्याएँ जैसे चरक न्यास, जल कल्पतरु, चक्रपाणि रचित आयुर्वेददीपिका आदि बहुचर्चित हैं। प्रायः चरक संहिता पर 44 व्याख्याओं का वर्णन प्राप्त है।

ग्यारहवीं शताब्दी में चरक संहिता की सबसे प्रसिद्ध व्याख्या – आयुर्वेददीपिका – चक्रपाणि जी ने लिखी। उसी के आधार पर उन्हें चरक चतुरानन कहा जाता है। उन्होंने चरक संहिता की व्याख्या के लिए चक्रदत्त नामक ग्रंथ भी लिखा है। चक्रदत्त में आयुर्वेद का आपातकाल में (इमरजेंसी में) कैसे उपयोग हो सकता है, उसके प्रयोग बताये गये हैं। आयुर्वेद के तुरंत परिणाम देने के विवरण हैं।

इस संहिता से ज्ञान ग्रहण करने के लिए, सर्वप्रथम एक प्रज्ञावान मनीषी वैद्य के सानिध्य की, उनकी शरण की आवश्यकता होती है, जो चरक को समझा पाएँ। ग्रंथ, टीका व सम्बद्ध पुस्तकों का पठन व प्रवचन (वैद्य गुरु द्वारा) और पढ़ने की रीति – इन सबको समझने की आवश्यकता होती है।

चरक संहिता आठ स्थानों में विभक्त है- सूत्रस्थान; निदानस्थान; विमानस्थान; चिकित्सास्थान; शारीरस्थान; इन्द्रियस्थान; कल्पस्थान; और सिद्धिस्थान।

इन स्थानों में 120 अध्याय हैं – सूत्रस्थान-30, निदानस्थान-8, विमानस्थान-8, शारीरस्थान-8, इन्द्रियस्थान-12, चिकित्सास्थान-30, कल्पस्थान-12 एवं सिद्धिस्थान-12 अध्याय।

यह संख्या 120 इसलिए है क्योंकि मनुष्य जीवन के भी 12 सोपान हैं जो उसके उत्तरोत्तर क्रम हैं।

चरक, सुश्रुत, काश्यप,हारित, भेल इन सभी संहिताओं में 120 अध्याय हैं। 120 अध्याय क्योंकि मनुष्य का आयुष्य 120 वर्ष का (या कहीं-कहीं 100 वर्ष का) माना गया है, जिसे 10-10 वर्षों के बाँटा गया है। क्रमश: प्रत्येक 10 वर्ष में एक एक गुण कम होता जाता है। मनुष्य के जीवन में से एक एक कलाएं नष्ट होती हैं। जैसे चंद्र की षोडश यानी सोलह कलाएँ होती हैं जो कृष्ण पक्ष में एकएक करके कम होती हैं, उसी प्रकार मनुष्य शरीर से प्रत्येक 10 वर्ष में एक एक कला नष्ट/क्षरित होती है और 120 वर्ष तक शरीर के स्तर पर मनुष्य का जीवन पूर्ण हो जाता है ।

बाल्यं वृद्धि छवि मेधा तददृष्टि शुक्रविक्रमो ।
बुद्धि कर्मेन्द्रियं चेतो जीवितं दशतो रसे॥

शारंगधर मुनि ने जीवन के 12 पड़ाव बताये हैं । प्रयेक पड़ाव 10 वर्ष का होता है। प्रत्येक 10 वर्ष में शरीर में परिवर्तन घटित होता है। इसीलिए रसायन प्रयोग का, औषधियों का बहुत महत्व बताया गया है क्योंकि उन परिवर्तनों के होने पर हम अपने शरीर को स्वस्थ रख सकते हैं, अंत समय तक टिका सकते हैं। (इस पर पंडित विश्वनाथ दातार शास्त्री जी ने गहन शोध कार्य किया है)। इसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र की विशोंतरी दशा, आयुष्य की 120 वर्ष की गणना करती है।

चरक संहिता के 120 अध्यायों में शरीर की रचना, मनो-मस्तिष्क की रचना, बुद्धि की रचना समझाने का बहुत सारा कार्य चरक मुनि ने कर दिया है जो निर्देशन केवल बुद्धत्व को प्राप्त ज्ञानी ही कर सकता है। चरकसंहिता में विषयों का यथास्थान सन्निवेश होने के कारण ही यह संहिता चिकित्साजगत में महत्त्वपूर्ण स्थान को प्राप्त है और चरक मुनि भारतीय चिकित्सा के जनक कहे जाते हैं।

चरक ने मुख्यतः काय चिकित्सा के ऊपर कार्य किया है। “काय इत्याग्निभिधीयते” – काय अर्थात शरीर की अग्नि !

आयुर्वेद का सिद्धांत है – अग्नि रक्षति रक्षितः – जो व्यक्ति अपने अंदर की अग्नि की रक्षा करता है, अग्नि उसकी रक्षा करती है। वह दीर्घायु होता है।

चरक संहिता में कहा गया है – सर्वेपि रोगा: जायन्ते मंदे अग्नो – सब रोग मंदाग्नि के कारण की होते हैं। पाचन की खराबी के कारण होते हैं। इसलिए अंदर की अग्नि का रक्षण करना चाहिये, उसका जतन करना चाहिये। दीपन, पाचन, अजीर्ण पर बहुत विस्तार से लिखा गया है।

चरक संहिता के आठ स्थानों में तीन स्थान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं – सूत्रस्थान, निदानस्थान और चिकित्सास्थान।

सर्वप्रथम सूत्रस्थान है। सूत्र किसे कहते हैं ? ‘अल्पाक्षरं असंदिगधं सूत्रं सूत्र विदो विदु’ ये सूत्र की व्याकरण में परिभाषा है। अर्थात अक्षर थोड़े हों और अर्थ बहुत गहरे व बहुत व्यापक हों। यदि चरक संहिता के अंग्रेज़ी में अनुवाद का प्रयास करें तो कई पुस्तकें लिखी जायेंगीं क्योंकि पूरी संहिता सूत्र में लिखी गयी है। संस्कृत की किसी भी गहन बात को भी सूत्र में बताने की परंपरा रही है । अनेक प्रकार का विचार करके, संदेह न हो ऐसी असंदिग्ध रीति से बताना सूत्र का लक्षण होता है।

सूत्रस्थान में विभिन्न अध्यायों में विभक्त, आहार-विहार का, सृष्टि का, जीवन का वर्णन है। वैसे तो चरक के सूत्र इतने अमूल्य हैं कि प्रत्येक सूत्र को रत्न की तुलना दी जाती है, फिर भी पचीसवाँ और छबीसवाँ अध्याय पूर्ण रूप से जानने और पालन करने योग्य है । पचीसवाँ अध्याय यज्जःपुरुषीयोऽध्याय है। उस काल में आयुर्वेद प्राज्ञ पारगामी बुद्धि वाले साधनारत जनों की परिषद हुई, इसीलिए इसका नाम यजः पुरुषीय अध्याय है। उस परिषद में जो भी मुख्य यज्ञ पुरुष थे, उन सबके पक्ष के सूत्र उनके नाम से इस अध्याय में संग्रहित हैं। उस परिषद में मंथन हुआ, चिंतन हुआ और परिणाम स्वरूप पचीसवें और छबीसवें अध्याय के सूत्रों का गठन हुआ। इस अध्याय के सूत्रों में एकएक द्रव्य के महत्व को बताया गया है। उदाहरण के लिए सबसे अच्छा, श्रेष्ठ धान्य कौन सा है, सबसे कनिष्ठ धान्य कौन से है, श्रेष्ठ और कनिष्ठ दूध कौन से है, आदि । उदाहरण के लिए – लोहितशालयः शूकधान्यानां पथ्यतमत्वे श्रेष्ठतमा भवन्तिअर्थात सूखे धान्यों में लाल चावल श्रेष्ठ होते हैं । सूत्रस्थान में 152 वस्तुओं की सूची दी गयी है । खाद्य और पेय अर्थात खाने और पीने वाली इन वस्तुओं की प्रत्येक श्रेणी में श्रेष्ठ कौन से है और कनिष्ठ कौन से है, ये स्पष्ट रूप से बताया गया है।

दूसरा उल्लेखनीय स्थान निदानस्थान है। जहाँ रोगों के कारण का विवरण है । निदान अर्थात रोगों के कारण ! रोगों के कारण  ज्ञात व  अज्ञात दोनों होते हैं और दृष्ट व  अदृष्ट भी । रोग की उत्पत्ति कैसे होती है? मनुष्य शरीर में रोग कैसे हो जाता है ? आदि । अणुर्हि प्रथमं भूत्वा रोग:पश्चात् प्रवर्तते” – जो रोग आरम्भ में अणु के समान होता है, उसी में बाद में बहुत वर्धन हो जाता है । इसलिए विवेकशील व्यक्ति को पहले ही अपना ध्यान रख कर, रोग ही न हो ऐसी जीवन शैली अपनानी चाहिये। चरक मुनि ने ऐसी जीवन शैली का दिग्दर्शन किया है। केवल दिनचर्या, ऋतुचर्या कैसी हो यही नहीं, अपितु मान्यता कैसी हो; बुद्धि कैसी हो – सत्व प्रधान, रजस प्रधान अथवा तमस प्रधान; जीवन कैसा हो, इन सब पर चरक मुनि ने बहुत विवरण दिया । व्यक्ति जितना रोगों के कारण को जानेगा उतनी अच्छी चिकित्सा कर पायेगा। रोगों का कोई एक कारण नहीं होता, अनेक कारण होते हैं इसीलिए चिकित्सा भी बहुत सी होती है। प्रत्येक रोग की केवल एक चिकित्सा नहीं है जो एक ही औषधि से ठीक हो जाए (उदाहरण के लिए ज्वर, जो एक लक्षण है, उसकी दवाई देने से ज्वर लाने वाला कारण समाप्त नहीं होता)।

चिकित्सास्थान में सर्वप्रथम रोगप्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि करके शरीर और मन को बल प्रदान करने वाली रसायन और वाजीकरण विधाओं को दो पृथक्-पृथक् अध्यायों में वर्णित करके तत्पश्चात् ज्वर आदि अन्य रोगों का निदान-चिकित्सा और पथ्यापथ्य सहित विस्तृत वर्णन किया गया है।

चिकित्सा तीन प्रकार की होती है तत्व  चिकित्सा, देव विपाश्रय चिकित्सा और युक्ति विपाश्रय चिकित्सा ।

रोग व्याधि के कारण से आते हैं जिसमें पूर्व जन्म के कर्म व्याधि के रूप में आना भी एक कारण है – “पूर्वजन्म भूतं पापं, व्याधिरूपेण बाधते । इसलिए आयुर्वेद में इतने प्रकार से चिकित्सा बताई गयी है, नक्षत्र से भी कैसे चिकित्सा करनी है, ये बताया गया है। सूक्ति रत्नाकर  व्याधि के निराकरण के लिए बताता है  तत्शान्ति: औषधे दाने जपे होमे अर्चनादिर्भि:”, इसलिए आयुर्वेद में होम, मंत्र, औषधि, मणि सभी का चिकित्सा रूप में वर्णन है।

चरक में बताया गया है कि किसकी चिकित्सा करनी है और किसकी चिकित्सा नहीं करनी है। सात्विक लोगों की चिकित्सा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि वह उत्तम कार्य करते हैं। उनका शरीर अच्छा होगा तो वह अच्छे कार्यों में उसे लगाएंगे।

डॉक्टरों द्वारा ली जाने वाली hypocritic oath जो अंतिम साल में ली जाती है, ऐसी शपथ का वर्णन पहली बार चरक ने किया था व उसका क्रियान्वन किया था । चरक संहिताओं में यह शपथ उपदेश अंकित है कि अंत में जब विद्यार्थी पढ़ कर जाता है तो उसे किस तरह से रहना है, चिकित्सा के चार पाद क्या हैं, वैद्य के चार गुण क्या है, औषधि के चार गुण क्या हैं, परिचारक के चार गुण क्या हैं!( सूत्रस्थान, खुड्डाकचतुष्पादोऽध्यायः)

चिकित्सा के संबंध में चरक में सूत्र है की चिकित्सा के समान कोई पुण्य नहीं क्योंकि एक व्यक्ति को आप यदि निरोगी कर देते हैं तो उसे एक नया जीवन दे देते हैं और नये जीवन के दान से बड़ा कौन से दान है? वैद्य ये दान देता है, इसलिए वैद्य से बहुत बड़ी अपेक्षा होती है, उससे एक उत्तम जीवन की आकांक्षा होती है। चिकित्सा करने का ये अवसर कभीकभी किसीकिसी को ही मिलता है और जो इस अवसर को छोड़ देता है, वह रत्न को छोड़कर पत्थर उठा लेने वाले के समान है। चरक संहिता इतना ज्ञान घटित करने वाला शास्त्र है।

आयुर्वेद में चरक संहिता को पवित्र व अति वंदनीय ग्रंथ माना जाता है। वैद्य उसकी परंपरा के पालन का जतन करते हैं। किन्तु भारत में भी अब चरक को जानने वाले कम ही हैं क्योंकि वह इसके महत्व से अनजान हैं। ऋषि मुनियों से मिले इस अभूतपूर्व ज्ञान को केवल उपदेश व ऐतिहासिक मान कर ही रह जाते हैं।

सुश्रुतो न श्रुतो येन, वाग्भटो येन वाग्भट:।
नाधितश्च चरक येन, स वैद्यो यम किंकर:॥

सुश्रुत जिसने सुना नहीं, वाग्भट्ट जिसे वाग्भट्ट (कंठस्थ) नहींचरक का जिसने चिकित्सा उपक्रम पढ़ा नहीं, वो वैद्य वैद्य नहीं, यम का दूत है।

आगे हम वृद्ध-त्रयी के सुश्रुत और वाग्भट्ट की बात करेंगे।  

(क्रमशः)

(Image credit: keralatourism.org)

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