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अनाम कला का रहस्य- भाग-३

लेखों की इस शृंखला का उद्देश्य उन घटनाओं की शृंखला का पता लगाना है जो किसी कला विशेष के क्षेत्र में कलाकार का व्यक्तिगत परिचय देने के उपरांत घटित हुई होंगी।

आज हम पुनर्जागरण काल में कलाकारों के परिचय के संदर्भ जानने की चेष्टा करेंगे

पुनर्जागरण के आरंभ में ही आधुनिक पश्चिमी जगत ने पहली बार इस परंपरा को समाप्त कर दिया। इस काल में कलाकार कला जगत में प्रवेश करता है और आप उस कला विशेष को एक विशेष कलाकार के नाम से जानने लगते हैं: माइकल एंजेलो, राफेल, ब्रुनेलेस्ची, दा विंची या कारवागियो आदि इसके उदाहरण हैं।

कुमारस्वामी मानते हैं कि “जैसे ही कलाकार कला जगत में प्रवेश करता है वह परंपरा की पुनर्प्रस्तुतिकी प्रवृत्ति से कुछ नया करने’ की प्रवृत्ति की ओर पदार्पण करता है। इस तरह की कला में हमेशा नवीनता की मांग होती है।

जबकि पारंपरिक समाज में यह प्रवृत्ति पारंपरिकता के अनुरूप थी, आदर्श के अनुसार थी, अब यह प्रवृत्ति कलाकार को अपने पूर्वजों के साथसाथ समकालीनों से भी अलग प्रदर्शित कर रही थी। सर्वप्रथम तो यह अत्यन्त तीव्र रचनात्मक गति का समय था और पुनर्जागरण काल की कला स्वयं में भी अद्भुत ही है।

लेकिन कला विशेष में कलाकार का परिचय होना, जिसे व्यक्तिगत नवीनताकी संज्ञा दी गई, एक फिसलन भरी ढलान सिद्ध होने लगी। बहुत जल्द ही कलाकार अपने पूर्ववर्तियों के साथ ही अपने समकालीन कलाकारों से अलग होने के विचारों से ओतप्रोत होने लगे।वे कुछ अलग रचने के प्रयत्न में अधिक से अधिक अजीब और विचित्र कार्य करने लगते हैं। ये अनोखापन एक अजीब रूप धारण कर लेता है।

प्रभाववादियों के समय तक ऐसे अधिकांश नवीन विचार जिनके परिणामस्वरूप महान कला का निर्माण हो सकता था धीरेधीरे अत्यंत क्षीण होने लगे और अभिव्यक्तिवादी युग तक तो कला मृत्यु की ओर अग्रसर होने लगी। कला के नए रूप आम लोगों द्वारा पहचानने योग्य नहीं रहे। यह विचार इतना जटिल, इतना विचित्र था एवं सौंदर्यशास्त्र के सभी स्थापित नियमों के विपरीत था कि अब स्वतंत्र रूप से कला और उसके स्थापित मूल्य का आनंद लेना संभव नहीं रहा।

(रचना VII – वासिली कैंडिंस्की)

कला में उपस्थित कलाकार की पहचान को उजागर करने का यह स्वाभाविक परिणाम है। जैसे ही कोई सभ्यता इसका प्रयोग करती है, वस्तुएँ बिगड़ने लगती हैं, मृत सिरों की ओर चली जाती हैं और जल्द ही कला मर जाती है।

आधुनिक पश्चिम में कला इसी तरह की है। यह व्यक्तिऔर व्यक्तिगत नवीनतापर टिकी हुई है। यह प्रमुख संस्कृति या क्षेत्र या राष्ट्र द्वारा नहीं पहचानी जाती है। इसे केवल व्यक्ति के नाम से ही जाना जाता है। आधुनिक कला में कलाकार ही सर्वोच्च है।

कुमारस्वामी व्यक्तिगत कलाकारके बारे में आगे कहते हैं

कला को दो अलगअलग दृष्टिकोण से सोचा गया है। आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार एक कलाकार विशेष या असामान्य प्राणी है, जो अजीबोगरीब भावनात्मक,संवेदनशीलता से संपन्न है और यही संवेदनशीलता उसे यह देखने में सक्षम बनाती है कि सौंदर्य किसे कहते हैं; किसी रहस्यमय सौंदर्य से प्रेरित होकर वह पेंटिंग, मूर्तिकला, कविता या संगीत का निर्माण करता है। इन्हें नेत्र अथवा श्रवणेंद्रियों की संतुष्टि के रूप में माना जाता है; इससे मात्र उन लोगों द्वारा आनंद लिया जा सकता है,जिन्हें कलाप्रेमीकहा जाता है और ये स्वभाव से कलाकार के व्यक्तिगत रूप से प्रभावित माने जाते हैं ना कि कला के तकनीकी पक्ष को जानने की क्षमता से।”

अब हम अगर भारतीय कला की बात करें तो वह इस विस्तार के एक छोर पर है। यह कलाकार की वैयक्तिकता का महिमामंडन नहीं करता है। व्यक्तिगत पहचान के बजाय, यह विशिष्ट विशेषताओं के साथ पूरी संस्कृति के निर्माण के लिए काम करता है और यही हमारी सांस्कृतिक विशेषता हैं जो कला में सभ्यता की सामूहिक छापके रूप में परिलक्षित होती हैं।

एक भारतीय कलाकार नवीनता की खोज नहीं करता है। वह सौंदर्य की तलाश भी नहीं करता बल्कि वह सत्य की खोज करता है। जो कुछ भी वह काम कर रहा है या जिस भी रूप में उसे काम करने का आदेश दिया जाता है, वह कुछ ऐसा निर्मित करने का प्रयत्न करता है जो उसके दर्शकों को चेतना के उच्च शिखर तक ले जाने में सक्षम हो। सृजन के दौरान सौंदर्य का निर्माण होना तय है। सर्वोच्च सत्य की ओर इंगित करने वाली कोई भी वस्तु उसके लिए सौंदर्यमूलक है। सुंदरता एक उपोत्पाद है, भारतीय कलाकार का लक्ष्य नहीं।

कलाकार का परिचय

भारतीय कला और उसकी अस्मिता के बारे में सच्चाई पहले भी व्यक्त की जा चुकी है, हालांकि आधुनिक कला समीक्षक इसका उल्लेख नहीं करना चाहते हैं। एक कला में कलाकार का नाम आने पर वास्तव में क्या होता है?’ इस विषय पर अब तक कोई अध्ययन नहीं किया गया।

उच्च पुनर्जागरण के प्रारंभ में आधुनिक पश्चिमी जगत में जब कलाकार को उनकी कला में प्रस्तुत किया गया था तो वास्तव में क्या हुआ और आज की उत्तर आधुनिक कला की त्रासदी में यह कैसे घटित हो गया, इन्हीं तथ्यों इस लेख की शृंखला के माध्यम से पता लगाया जाएगा।

चित्रकला और मूर्तिकला की केवल एक शाखा में यह उपक्रम और उत्तरगामी पतन नहीं हुआ। यह एक अतिव्यापी घटना थी, संस्कृति की सामूहिक चेतना के स्तर पर एक सभ्यतागत परिवर्तन था और यह चित्रकला, संगीत, मूर्तिकला, वास्तुकला, साहित्य जैसे कला के सभी विषयों में प्रकट हुई। यही नहीं, इस अनोखी अवधारणा ने भोजन परंपरा को भी मौलिक रूप से बदल दिया।

लेखों की बाद की शृंखला एक समय में एक शाखा का अनुसरण करेगी और यह बताएगी कि कला में एक कलाकार के परिचय की महत्ता ने कला को किस प्रकार नष्ट कर दिया।

इक्कीसवीं शताब्दी में एक रजत रेखा के रूप में,कलाकार के बिना भी कला एक अनोखे और अप्रत्याशित रूप से वापसी कर रही है। इंटरनेट इसकी सुविधा भी दे रहा है। शृंखला उन लेखों के साथ समाप्त होगी जो कलाकार के परिचय के बिना स्थापित इस नई कला का पता लगाएगी।

संदर्भ-

1. जैन, मीनाक्षी। राम और अयोध्या। आर्यन पब्लिशर्स, 2013.

2. कुमारस्वामी, . के. भारतीय कला का परिचय। मुंशीराम मनोहरलाल, 1947. (2017 ईडीएन)

(यह लेख पंकज सक्सेना द्वारा लिखित पहले आंग्ल भाषा में प्रस्तुत किया गया है)

(Featured image credit: 123RF)

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