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उत्तर काण्ड – दुविधा के कारण

जम्बुद्विपे भरत खंडे आर्यावर्ते भारतवर्षे, 

एक नगरी है विख्यात अयोध्या नाम की, 

यही जन्म भूमि है परम पूज्य श्री राम की, 

हम कथा सुनाते राम सकल गुणधाम की, 

ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की,  

ये रामायण है पुण्य कथा श्री राम की।।

रामायण हमारे सबसे बड़े और महान महाकाव्यों में से एक है, इसे एक जीवित शिक्षक के तुल्य माना जाता है जो लोगों को सभ्य मानव के रूप में अग्रणी जीवन की बारीकियों से अवगत कराता है। इसमें त्रेतायुग के संबंधों के कर्तव्यों के पालन का शिक्षण देने के साथ ही इसमें आदर्श पिता, आदर्श सेवक, आदर्श भाई, आदर्श पत्नी और आदर्श राजा जैसे चरित्रों के गुण दर्शाए गए हैं । मानव हृदय को द्रवीभूत करने की जो शक्ति और क्षमता रामकथा में है वो अन्यत्र कहीं मिलना दुर्लभ है और इसीकारण इतनी शताब्दियाँ बीत जाने के बाद भी आज भी रामायण का हमारे समाज में वही स्थान है।

अभी लॉकडाउन के चलते हुए रामायण का दूरदर्शन पर पुनःप्रसारण हुआ, जिसने पुरानी पीढ़ी की यादें तो तरोताज़ा की ही, साथ में युवा पीढ़ी का भी इसमें आकर्षण उत्पन्न हुआ। साथ ही पुनरुध्भ्व हुआ उस विवाद का जिसमें एक पक्ष का मत रहा है कि “उत्तरकाण्ड” वाल्मीकि रामायण में बाद में जोड़ा गया जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि “उत्तरकाण्ड” सदैव से ही वाल्मीकि रामायण का अभिन्न अंग रहा है। सोशल मीडिया के उद्भव के कारण आज के समय में इस विवाद को और ज़्यादा हवा मिल गयी है। वैसे इस लेख के माध्यम से हम दोनो तरफ़ के पक्षों के तर्क समझने का प्रयास करेंगे किंतु इस बात को कोई नहीं नकार सकता कि रामायण का महत्व आज भी हमारे लिए उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था जब इसे लिखा गया था।

विद्वान सनातन धर्म के धार्मिकसाहित्य को श्रुति और स्मृति में विभाजित करते हैं। श्रुति (जिसका शाब्दिक अर्थ है स्वयं सुनकर अर्जित किया गया ज्ञान) ग्रंथों का एक वर्ग है जिसे रहस्योद्घाटन के रूप में माना जाता है। स्मृति (शाब्दिक रूप से ‘स्मरण’) ग्रंथों का वह वर्ग है जो स्मृति पर आधारित है, इसलिए परंपरागत कहा गया है। इसकी भूमिका प्राथमिक रहस्योद्घाटन को स्पष्ट करने, व्याख्या करने और विवेचना करने में रही है। श्रुति विहित और धर्मवैधानिक हैं जिसमें रहस्योद्घाटन और निर्विवाद सत्य शामिल है, और इसी कारण इसे शाश्वत माना जाता है। यह मुख्य रूप से स्वयं वेदों को संदर्भित करता है। स्मृति पूरक है और समय के साथ बदल सकती है और बदलती रही है। यह केवल उस हद तक आधिकारिक है कि यह श्रुति के आधार के अनुरूप है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वेदों के अलावा हमारे सभी ग्रंथ “स्मृति” के रूप में परिभाषित होते हैं जिसने हमारे दोनो महाकाव्य रामायण और महाभारत भी शामिल हैं। स्मृति ग्रंथ होने के कारण ही अलग अलग देशों, भाषाओं और लेखकों द्वारा हमें रामायण के अनगिनत रूप आज देखने मिलते हैं।

वैसे ये अत्यंत हर्ष का विषय है कि इस विवाद ने अनेक लोगों के मन में रामायण के प्रति और अधिक जानने की जिज्ञासा उपजायी है, किंतु साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि दोनो दृष्टिकोण तर्कसंगत हों। एक तरफ़ प्रोफ़ वेबर जैसे पाश्चात्य लेखक भी हैं जो इस सीमा तक चले गए कि “रामायण” को प्राचीन ग्रीक लेखक “होमर” लिखित “ऑडिसी” से प्रेरित बता दिया और यहाँ तक कहा कि दोनो ग्रंथों में प्रयुक्त हुई भाषा के आधार पर ये लगता है कि रामायण को महाभारत के बाद लिखा गया। वेबर के अनुसार रामायण का स्त्रोत वास्तव में महाभारत में वर्णित “रामोपख्यान” है।

अनेक भारतीय विद्वान इस से पूरी तरह असहमत हैं किंतु मानते हैं कि उत्तरकांड को रामायण में बाद में जोड़ा गया, दूसरी ओर करपात्री जी महाराज जैसे कई भारतीय विद्वान हैं जो उत्तरकांड को वाल्मीकिकृत रामायण का अभिन्न अंग और सभी सात काण्डों को एकसाथ और क्रमबद्ध रूप से लिखा हुआ मानते हैं। आइए दोनो पक्षों के कुछ मुख्य तर्कों को थोड़ा विस्तार से समझते हैं।

१. फलश्रुति का तर्क –

हमारे सारे महान ग्रंथ एक ही उद्देश्य से लिखे कि किस तरह मानव जीवन को उन्नत बनाया जाए। अधिकांशतः सभी ग्रंथों के अंत में भक्त या पाठक को प्रेरित करने के लिए फलश्रुति लिखी गयी। फलश्रुति वह वाक्य है जिसमें किसी अच्छे कर्म के फल का वर्णन होता है और जिसे सुनकर लोगों की वह कर्म करने की प्रवृत्ति होती है। श्रीमद्भगवद्गीता के अंत में आया ये श्लोक फलश्रुति माना गया-

यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥

अर्थात् जहाँ श्रीकृष्ण प्रेरक हैं, निर्वाहक हैं, पूर्णता का दान करने वाले हैं और जीव अपने कर्तव्य में परायण है, अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है वहाँ शंका की कोई बात नहीं। वहाँ तो श्री है, विजय है वैभव है, ध्रुव नीति है और वहीं भगवान का ज्ञान भी है। {१}

उत्तरकाण्ड को वाल्मीकिकृत रामायण में बाद में जोड़ा गया मानने वालों का तर्क है कि रामायण के युद्धकाण्ड के अंत में वाल्मीकि ने लिखा-

रामायणमिदं कृत्स्नं शृण्वतः पठतः सदा ।
प्रीयते सततं रामःस हि विष्णुः सनातनः।।६/१२८ /११९

अर्थात् जो इस संपूर्ण रामायण का पाठ करता है, उस पर सनातन विष्णु स्वरूप भगवान् श्री राम सदैव प्रसन्न रहते हैं ।
वाल्मीकि पुनः आगे कहते हैं –
                                                एवमेतत् पुरावृत्तमाख्यानं भद्रमस्तु वः। ६/१२८/१२१

श्रोताओ! आप लोगों का कल्याण हो। यह पूर्वघटित आख्यान ही इस प्रकार रामायण काव्य के रूप में वर्णित हुआ है। डॉ राधा नंद सिंह कहते हैं युद्ध कांड में रामायण की संपूर्णता का इससे और बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है। दूसरी बात यह कि यह काव्य की फलश्रुति है। युद्धकांड तक अलग और उत्तरकांड की अलग फलश्रुति की कोई परंपरा नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उत्तरकांड मूल रामायण का भाग नहीं है।

My understanding of Srimad Ramayana (శ్రీమద్రామాయణం ...

इसके खंडन में उत्तरकांड को वाल्मीकि रचित मूल रामायण का सातवाँ काण्ड मानने वालों का मत है कि यह एक ग़लत धारणा है कि फलश्रुति प्रत्येक ग्रंथ के अंत या उपसंहार को इंगित करती है। हमारे शास्त्रों में, हर अध्याय में उसका पाठ करने या सुनने के कुछ लाभ बताए गए हैं। कुछ स्थानों पर, फलश्रुति को स्पष्ट बताया गया है  और अन्य स्थानों में इसे गोपनीय रखा गया है। उदाहरण के लिए महाभारत में, हमारे पास फलश्रुति के कई रूप दिखाई देते हैं।

• फलश्रुति, नलोपाख्यान के अंत में उपस्थित है, जो उस अध्याय के पढ़ने के लाभों को बताता है ।
• अध्याय’ ‘कर्ण पर्व’ के बाद फलश्रुति मौजूद है, जो उस ‘पर्व’ को सुनाने की महानता को बताता है।

• फलश्रुति स्वर्गारोहण पर्व ’के बाद मौजूद है, जो संपूर्ण महाभारत’ का पाठ करने की महानता को बताता है।

चूंकि “स्वर्गारोहण पर्व” के  बाद फलश्रुति पूरे महाभारत का पाठ करने के लाभों के बारे में वर्णन करती हैं, क्या इसका मतलब यह है कि महाभारत का अंत वहीं हुआ था? नहीं, इसके पश्चात ‘हरिवंशपर्व ’की शुरुआत है जिसे ख़िला पर्व (परिशिष्ट)’ कहा जाता है। और पूरी तरह से ‘हरिवंशपर्व’ का पाठ करने की एक अलग फलश्रुति दी गयी है।

यह एक स्वतंत्र पर्व है जिसे अलग से पढ़ा जा सकता है और इसलिए कभी-कभी इसे ‘हरिवंशपुराण’ भी कहा जाता है। इसी तरह, वाल्मीकि ने मुख्य ग्रंथ के रूप में पहले छह काण्ड और एक ‘परिशिष्ट के रूप में सातवें काण्ड’ के रूप में उत्तर काण्ड लिखा था। इसलिए, उन्होंने फलश्रुति के साथ छह कांडों के मुख्य समूह को समाप्त किया और उसके बाद परिशिष्ट यानी, ‘उत्तराकाण्ड’ शुरू किया।

२. लेखन की शैली में अंतर 

उत्तरकाण्ड को बाद में जोड़ा गया मानने वालों के अनुसार पहले छह कांडों की भाषा और शैली उत्तराकाण्ड से बहुत ज़्यादा सभ्य और सुसज्जित है जबकि उत्तरकांड की भाषा, लेखन शैली और पद्यरचना उतनी परिष्कृत नहीं हैं। प्रोफ़ वेबर की अवधारणा का ये एक प्रमुख स्तम्भ है।

इसके सामने उत्तरकांड को वाल्मीकिरचित और उसी समय लिखा गया मानने वाले कहते हैं कि उत्तरकांड की लेखन शैली का बाक़ी सब काण्ड से थोड़ा अलग होने का कारण यह है कि पहले छः काण्ड की घटनाएँ ‘अतीत’ की हैं जो वाल्मीकि ने स्वयं नहीं देखी थीं। देवर्षि नारद ने वाल्मीकि को राम कथा लिखने की सलाह दी और भगवान ब्रह्मा ने उन्हें एक आध्यात्मिक दृष्टि देने का वरदान दिया कि वह सब कुछ उसी तरह देख पाएंगे मानो कि सब उनके ही सामने हो रहा है। इस प्रकार, वाल्मीकि ने ध्यान में उन घटनाओं को देखा और उनके मन में छंद की रचना की। ये उनके एकांत में रचे गए थे। इसलिए, उन छः काण्ड को लिखने की एक विशेष शैली बनी। दूसरी ओर उत्तराकाण्ड की घटनाएँ, वाल्मीकि के जीवन के समकालीन घटित हो रही थीं। इसलिए, उत्तरकाण्ड की घटनाओं को लिखते समय, यह बहुत संभव है कि वाल्मीकि ने अपनी दृष्टि को एकांत में रखते हुए पूरी तरह से उत्तराखंड की रचना नहीं की।एक तरह से कह सकते हैं कि उनकी बाह्य दृष्टि ने उनकी अंतर्दृष्टि को बहुत ज़्यादा प्रभावित किया।इस कारण उत्तरकांड की लेखन शैली भले ही बाक़ी सब काण्ड से अलग हो किंतु उसे वाल्मीकि द्वारा ही लिखा गया है।

अब इस तर्क के सामने ये श्लोक देखिए-

कीदृशं हृदये तस्य सीतासंभोगजं सुखम्। 

अंकमारोप्य तु पुरा रावणेन बलाद्धृताम्।।७ /४३/१७

विद्वान इस श्लोक का अर्थ जानते होंगे ।श्रीराम के समक्ष गुप्तचर भद्र का यह कथन कितना अभद्र है । अंतरदृष्टि और बाह्यदृष्टि के कारण लेखन शैली में भिन्नता तो हो सकती है किंतु क्या श्रीराम और देवी सीता के प्रति ऐसी अभद्र भाषा वाल्मीकि की होने की सम्भावना हो सकती है?

दूत को मारना 

सुंदरकाण्ड में रावण द्वारा हनुमानजी के वध का आदेश देने में रावण को रोकने की कोशिश करते हुए, विभीषण कहते हैं कि दूत की हत्या नहीं की जा सकती, ये नीति के विरुद्ध है-

वैरूप्याम् अन्गेषु कश अभिघातो | 

मौण्ड्यम् तथा लक्ष्मण सम्निपातः |

एतान् हि दूते प्रवदन्ति दण्डान् | 

वधः तु दूतस्य न नः श्रुतो अपि || 

“वास्तव में, हमने किसी दूत की हत्या के बारे में कभी नहीं सुना है ” यह विभीषण लंका में होने वाले भीषण युद्ध से सिर्फ एक महीने पहले कह रहे थे। उनके अनुसार दंडनीति में दूत को मारने का कोई विधान नहीं है। हालांकि, रावण द्वारा कुबेर के दूत की हत्या के बारे में उत्तरकाण्ड के १३ वें सर्ग में बताया गया है।

इसलिए रावण ने लगवाई थी हनुमान की ...

एवमुक्तवा तु लंकेशो दूतम खड्गेन जघ्निवान।

ददौ भक्षयितूँ ह्येंनं राक्षसानां दुरात्मनाम।।

उत्तरकांड को बाद में जोड़ा गया मानने वालों के अनुसार यदि रावण ने वास्तव में कुबेर के दूत को मार दिया होता, तो विभीषण ने सुंदरकाण्ड में यह नहीं कहा होता कि एक दूत को मारने की बात नीति विरुद्ध थी क्योंकि ये घटना तो हनुमानजी के लंका पहुँचने से बहुत पहले हो चुकी थी।

अब दूसरी ओर उत्तरकांड को वाल्मीकिरचित और बाक़ी सब कांड से सामयिक ही लिखा मानने वाले कहते हैं कि रावण द्वारा कुबेर के दूत को मारे जाने का कथन का कारण उस श्लोक का अलग ढंग से निर्वचन किया जाना है। रावण सभी शास्त्रों में शिक्षित था, फिर भी उसने एक दूत का वध कर दिया था जबकि किसी भी ग्रंथ में दूत को मारे जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन रावण रावण था, उसने कभी धर्मशास्त्रीय निषेधाज्ञा का ठीक से पालन किया था? चूँकि उसे दूत को मार डालने की आदत थी, सुंदरकांड में भी उन्होंने हनुमान की हत्या का आदेश दिया था। ये तो विभीषण थे जिन्होंने रावण को शांतचित्त से समझाया और हनुमानजी के वध करने की आज्ञा को रोका। स्वतंत्र रूप से सोचने पर यह तर्क युक्ति संगत नहीं लगता है। वो रावण जो सब शास्त्रों का ज्ञाता था, वो रावण जिसने इतने समय तक देवी सीता को अशोक वाटिका में रखा किंतु कभी स्पर्श भी नहीं किया, उसके बारे में यह सोचना ठीक होगा कि नीति और शास्त्रों के विरुद्ध जाकर उसने दूत का वध किया होगा?

४. महाभारत में रामोपख्यान 

रामायण महाभारत से बहुत पहले लिखी गई थी। महाभारत के वन पर्व के २७ २-२८९वे खंडों में, ऋषि मार्कंडेय द्वारा युधिष्ठर को श्री राम कथा सुनाई गई थी। हालाँकि इस कहानी में श्रीमद रामायण में बताई गई कहानी की तुलना में मामूली परिवर्तन हैं, लेकिन उन प्रसंगों में श्री राम की कहानी का पूरा वर्णन है। ऋषि मार्कंडेय ने श्री राम की कथा को कोसल साम्राज्य के राजा के रूप में श्री राम के राज्याभिषेक के साथ महाभारत के वन पर्व के २८९वे खंड में समाप्त किया।

उत्तरकाण्ड को प्रक्षेपित या बाद में जोड़ा गया मानने वालों का तर्क है कि यदि वाल्मीकिकृत रामायण में उत्तरकाण्ड में श्री राम द्वारा देवी सीता को त्यागा जाना और देवी सीता के भूमि में समा जाने का वर्णन किया गया होता तो क्या इतनी महत्वपूर्ण घटना के बारे में ऋषि मार्कण्डेय युधिष्ठिर को नहीं बताते ऐसा सम्भव है?

यह सिद्ध करता है कि उत्तरकांड को रामायण में महाभारत के बाद जोड़ा गया है। इस संदर्भ में उत्तरकाण्ड को वाल्मीकिकृत रामायण का भाग मानने वाला पक्ष कोई सशक्त तर्क नहीं दे पाता है।

५. शम्बूक वध –

युद्ध काण्ड के अंत में वाल्मीकि के अनुसार जब राम राज्य पर शासन कर रहे थे, लोग किसी भी तरह के रोग और व्याधियों से मुक्त थे, लम्बी आयु वाले थे और लोभ, लालच और शोक से मुक्त थे।

निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थः कन् चिदस्पृशत् | 

न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते ||

‘वाल्मीकि’ द्वारा ये भी कहा गया है कि श्री राम के शासनकाल में उनके राज्य में किसी की समय से पहले मृत्यु नहीं होती थी।

शम्बूक वध का सत्य – चौथा खम्बा

किंतु फिर भी एक ब्राह्मण के एक पुत्र की अकाल मृत्यु का वर्णन  उत्तरकाण्ड में किया गया था।  ऐसा हुआ कि एक ब्राह्मण के पुत्र की अकाल मृत्यु हो गई। शोक संतप्त पिता ने उसके शरीर को महल के द्वार पर रख दिया, और अपने बेटे की मृत्यु के लिए श्री राम को फटकार लगाते हुए कहा कि उसके पुत्र की मृत्यु का कारण उनके राज्य में किए गए किसी प्रजाजन के पापों का परिणाम है, और यदि दोषी को दंड नहीं मिला तो इस पाप के भागी श्रीराम स्वयं होंगे।

श्री राम ने अपनी मंत्रीपरिषद से परामर्श किया, और इसपर देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि उनके प्रजाजनों में से कोई शूद्र तपस्या कर रहा है जो धर्म के विरुद्ध है। नारद की बात सुनकर श्री राम इस प्रकार आश्वस्त हुए कि यह एक शूद्र द्वारा धर्मविरोधी कार्य करने का पाप था, जो ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु का कारण था। इसलिए, श्री राम अपने विमान पर आरूढ़ होकर अपराधी की खोज में निकले। अंत में, दंडकारण्य में उन्हें एक कठोर तपस्या करने वाला एक व्यक्ति दिखा। श्रीराम द्वारा पूछने पर उस व्यक्ति ने अपना नाम शम्बूक बताया और कहा कि वह एक शुद्र था, और वह सशरीर स्वर्ग जाने के लिए ये तपस्या कर रहा था। ये सुनकर श्री राम ने बिना किसी चेतावनी के तलवार से उसका सिर काट दिया।

भाषतस तस्य शूद्रस्य खड्गं सुरुचिरप्रभम   

निष्कृष्य कॊशाद विमलं शिरश चिच्छेद राघवः

उसी क्षण अयोध्या में ब्राह्मण का मृत पुत्र जीवित उठा, ये देखकर देवताओं और ऋषियों ने श्रीराम पर पुष्पवर्षा की।

यह दृष्टांत पढ़कर मन में ये प्रश्न आना स्वभाविक है कि क्या सच में उस समय शूद्रों के साथ ऐसा भेदभाव होना सम्भव था??? आइए थोड़ा और जानने का प्रयत्न करें।

बाल काण्ड में प्रथम सर्ग के अंत में वाल्मीकि कहते हैं-

पठन्द्विजो वागृषभत्वमीयात्  

स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात् ।  

वणिग्जन: पण्यफलत्वमीयात्  

जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात् ।।

चारों वर्णों को समान बताते हुए स्वयं वाल्मीकि कहते हैं कि रामायण को पढ़ने से ब्राह्मण अठारह विधाओं में पारंगत हो जाएगा, क्षत्रिय पढ़े तो पृथ्विपती बने, वैश्य का व्यापार अच्छा चले और शूद्र पढ़े तो उसका महत्व बढ़े और श्रेष्ठत्व को प्राप्त हो।

बृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार शूद्र वर्ण क्योंकि पूषण देवता से उत्पन्न हुआ है इसलिए ये पोषण करने वाला हैं और साक्षात् इस पृथ्वी के समान हैं क्यूंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण -पोषण करती हैं वैसे शूद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं।

हमारे सभी ग्रंथों में वर्णों को सदैव गुण प्रधान ही बताया गया है, श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान स्वयं कहते हैं-

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।  

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।१८.४१।।

इसका तात्पर्य यह है कि यदि शुद्ध में भी तप, शील, सत्य और क्षमा जैसे ब्राह्मणिय गुण हों तो वह भी ब्राह्मण ही माना जाएगा।

इसे ही और विस्तार से वनपर्व में वर्णित युधिष्ठिर-सर्प संवाद में प्रत्यक्ष किया गया है। सर्प योनि में नहुष युधिष्ठिर से पूछते है, ‘ब्राह्मण कौन है?’ इस पर युधिष्ठिर कहते हैं कि ब्राह्मण वह है, जिसमें सत्य, क्षमा, सुशीलता, क्रूरता का अभाव तथा तपस्या और दया, इन सद्गुणों का निवास हो. इस पर नहुष शंका करता है कि ये गुण तो शूद्र में भी हो सकते हैं, तब ब्राह्मण और शूद्र में क्या अंतर है?

शूद्रेष्वपि च सत्यं च दानम्क्रोध|

एव च आनृशंस्रमहिंसा च घृणा चैव युधिष्ठिर।।

अर्थात् हे युधिष्ठिर, सत्य, दान, दया, अहिंसा आदि गुण तो शूद्रों में भी हो सकते हैं. इस पर युधिष्ठिर ने जो उत्तर दिया, वह किसी भी ज्ञानी मनुष्य का उत्तर हो सकता है। इस पर युधिष्ठिर ने कहा-

                                                     शूद्रे तु यद् भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते |

न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः ||

यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प वृत्तं स ब्राह्मणः स्मृतः |

यत्रैतन्न भवेत सर्प तं शूद्रमति निर्दिशेत।।

यदि शूद्र में सत्य आदि उपयुक्त लक्षण हैं और ब्राह्मण में नहीं हैं, तो वह शूद्र शूद्र नहीं है, ना वह ब्राह्मण ब्राह्मण. हे सर्प, जिसमें ये सत्य आदि ये लक्षण मौजूद हों, वह ब्राह्मण माना गया है और जिसमें इन लक्षणों का अभाव हो, उसे शूद्र कहना चाहिए.

अब अगर वेद से लेकर वाल्मीकि और युधिष्ठिर तक सब लोग ये जानते और मानते थे कि मनुष्य जन्म से नहीं गुण और कर्मों से पहचाना जाता है, तो क्या आदर्श व्यक्तित्व और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम केवल तपस्या करने के कारण शम्बूक का वध कर देंगे??

इन शंकाओं का कोई तार्किक समाधान उत्तरकाण्ड को वाल्मीकि रचित मानने वाला पक्ष नहीं कर पाता है। इस पक्ष का केवल ये कहना कि यही उद्धरण महाभारत में भी मिलता है इसलिए शम्बूक वध हुआ और श्रीराम ने किया यह तार्किक नहीं है। ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत और कितने ही दूसरे ग्रंथों में श्रीराम चरित्र का वर्णन मिलता है जहां श्रीराम को धर्म के रूप में दिखाया गया है

ज्ञानं हि द्विविधं प्रोक्तं सिद्धांताचारभेदत:। सैद्धांतिकं वेद दृष्टम चरितं व्यावहारिकम।।

ऋगादिकं तयोराद्यं परं रामायणम स्मृतम। अतः श्रीरामचरितं शृतीनामुपंबृहणम।।

वेदों में जो ज्ञान सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित है उसे ही राम के जीवन में आचरण का रूप दिया गया है, इसलिए रामचरित्र वेदों का ही उपबृहण है। इसीलिए ही तो कहा गया था- “ रामो विग्रहवान धर्म:” अर्थात् राम स्वयं धर्म का साक्षात रूप हैं।

श्रीमद्भगवत के अनुसार भी – “तत्रापि भगवानेव साक्षाद ब्रह्ममयो हरि:”

अब यदि सारी बातों पर विचार करें तो तार्किक और वैचारिक दोनों तरीकों से शम्बूक-वध जैसी घटना पर प्रश्नचिन्ह उठता है क्योंकि पूरी रामायण में राम के अत्युतम आदर्श चरित्र को वर्णित करने के उपरान्त अंत में ऐसा गर्हित चरित्र चित्रण महर्षि वाल्मीकि नहीं कर सकते है। क्या ये सोचने की बात नहीं है कि जिन राम ने चौदह वर्ष दलित, शोषित, पीड़ित, आदिवासी, वनवासियों के साथ हर तरह की परिस्थिति में बिताए, केवट के तर्कों पर हँसे, अपने मित्र निषादराज के घर भोजन किया, शवरी के जूठे बेर खाये, जटायु को गोद में लेकर रोए, वे राम शम्बूक का वध कर सकते हैं ..? और इसी कारण अधिकतर रामायण में यह पूरी की पूरी कथा अनुपस्थित है।

नदी के किनारे क्रौंच पक्षी के वध से द्रवित होने पर जब वाल्मीकि के मुख से स्वतः ही ऐसा श्लोक फूट पड़ा हो-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥

तो क्या वो आदिकवि वाल्मीकि एक तपस्वी के वध को महिमामंडित कर सकते है..? क्रौंच वध की करुणा ने जिस वाणी और विचार को काव्य का रूप और प्रेरणा दे दिया हो, शंबूक-वध का प्रसंग क्या उस आदिकवि को अंदर तक तोड़ ना गया होता??? तार्किक रूप से तो हमने विश्लेषण करने की कोशिश की है.. भावनात्मक रूप से आप स्वयं विचार करिए।

अंतिम शंका यह है कि हम में से कोई भी अगर अपनी आँखें बंद करे और श्रीराम के स्वरूप का ध्यान करे तो सदैव भगवान के जिस रूप के दर्शन होते हैं उसमें श्रीराम को धनुषधारी पाएँगे, क्या आज तक कहीं भी भगवान राम के हाथ में खड्ग वाला कोई स्वरूप हमने देखा है? मुझे तो नहीं याद पड़ता, फिर कैसे उत्तरकांड में बताया गया कि भगवान राम ने तलवार से शम्बूक का सिर काट दिया?

६. श्रीराम द्वारा सीता का त्यागा जाना 

स्वामी रामभद्राचार्य जी कहते हैं कि वाल्मीकि-रामायण में यह वर्णित है कि जब सीता जी की अग्नि परीक्षा हो रही थी तो “सोने की बनी हुई वेदी के समान कान्तिमती विशाललोचना सीता देवी को उस समय संपूर्ण भूतों ने आग में गिरते देखा

ददृशुस्तां विशालाक्षीं पतन्तीं हव्यवाहनम्। 

सीतां सर्वाणि रुपाणि रुक्मवेदिनिभां तदा ।। वा.रा.६/११६/३२  

जब इस दृश्य को पूरा संसार देख रहा था तो यह धोबी संसार में नहीं था क्या? एक बात और इस अग्नि परीक्षा के बाद श्री राम कहते हैं –

विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा। 

न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ।वा.रा.-६/११८/२0

अर्थात् मिथिलेशकुमारी जानकी तीनों लोकों में परम पवित्र हैं ।जैसे मनस्वी पुरुष कीर्ति का त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह मैं भी इन्हें नहीं छोड़ सकता ।

Sita and Rama – The Divine in the Connubial Paradigm' | | Jagrit ...

एक बात और जिस प्रकार से श्री राम लक्ष्मण जी को बिना किसी मंत्रणा के शपथ देकर सीता के निर्वासन का आदेश देते हैं, यह भी श्री राम की नीति के विरुद्ध लगता है। क्योंकि, श्रीराम सदैव महात्माओं और भाइयों के साथ मंत्रणा करके कोई निर्णय लेते थे –

शापितं हि मया यूयं पादाभ्यां जीवितेन च। 

ये मां वाक्यान्तरे ब्रूयुरनुनेतुं कथंचन।। 

अहिता नाम ते नित्यं मदभीष्टविघातनात्

अर्थात् मैं तुम्हें अपने चरणों और जीवन की शपथ दिलाता हूँ, मेरे निर्णय के विरुद्ध कुछ न कहो।जो मेरे इस कथन के बीच में कूदकर किसी प्रकार मुझसे अनुनय-विनय करने के लिए कुछ कहेंगे, वे मेरे अभीष्ट कार्य में बाधा डालने के कारण सदा के लिए मेरे शत्रु होंगे।

इस तरह के विरोधाभासी कथन श्रीराम के चरित्र से मेल खाते हुए लगते हैं या नहीं, ये निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूँ।

७. मानस और दूसरे ग्रंथों से संदर्भ

तुलसीदास जी बालकांड के मंगलाचरण में कहते हैं –

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्,  

रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि। 

स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा,

भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति॥

मैं यहाँ मनोहर भाषा रचना में उसी का विस्तार कर रहा हूँ जो अनेक पुराण, वेद और (तंत्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित (रामायणे निगदितं) है।

क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि रामचरितमानस में वाल्मीकीय रामायण का पूरा का पूरा उत्तरकांड अनुपस्थित है? क्या यह वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकांड के प्रक्षिप्त होने का बहुत बड़ा प्रमाण नहीं है? इसके उत्तर में कोई तार्किक खंडन नहीं मिलता है।

एक बात जो बहुत महत्वपूर्ण है कि उत्तर कांड के ९४ वें सर्ग के २७ वें श्लोक में कहा गया है –

आदिप्रभृति वै राजन् पञ्चसर्ग शतानि च। 

काण्डानि षट्कृतानीह सोत्तराणि महात्मना ।। 

उन महात्मा ने आदि से लेकर अंत तक पाँच सौ सर्ग और छः काण्डों का निर्माण किया है। इनके सिवा इन्होंने उत्तरकांड की भी रचना की है। उपर्युक्त श्लोकार्थ में उत्तर कांड जिस प्रकार बाहर से जोड़ा हुआ लगता है , उसका निर्णय विद्वान स्वयं कर सकते हैं ।

इसके सामने उत्तरकांड को वाल्मीकिरामायण का अभिन्न भाग मानने वाला वर्ग भवभूति लिखित “उत्तररामचरित” और कालिदास कृत “रघुवंशम” का उदाहरण देते हैं जिनमे श्रीराम द्वारा सीता त्याग बताया गया है।

भवभूति ने “महावीरचरित” और “उत्तररामचरित” के लिए रामायण को आधार अवश्य बनाया किंतु  उन्होंने अपने नाटकीय कौशल और प्रतिभा का सहारा लेते हुए मूलकथा में अनेक परिवर्तन किए हैं और इसलिए इन परिवर्तनों को भवभूति की निजी कल्पना कहना अधिक उचित होगा। जैसे कि महावीरचरित् में  राम के सीता के साथ विवाह का समाचार सुनकर माल्यवान चिंतित होता है, वह राम द्वारा शिव धनुष के भंग किए जाने का समाचार भगवान परशुराम को सुनाकर उन्हें उत्तेजित करता है और ये सुनकर परशुराम श्रीराम का वध करने के लिए मिथिला आते हैं, ये प्रसंग और कहीं भी उद्धृत नहीं होता।

इसी प्रकार राम के वनगमन प्रसंग में भी भवभूति ने अलग कल्पना दिखाई। शूर्पणखा को मंथरा के शरीर में प्रविष्ट करा कर कैकेयी के व्यक्तित्व को निष्कलंक बताने का प्रयत्न इसमें साफ़ दिखता है। इसी प्रकार से श्रीराम द्वारा सीता त्याग बताया जाना भी ऐसा ही ऐच्छिक परिवर्तन है जो नाटकीय तत्वों की सौंदर्य वृद्धि के लिए किया गया लगता है।

इसी प्रकार महाकवि कालिदास कृत “रघुवंशम” में भी रामकथा का दृष्टांत मिलता है, किंतु इसमें भी वाल्मीकि रामायण से बहुत समानता नहीं है। अवश्य ही “रघुवंशम” में सीता त्याग वर्णित है किंतु साथ ही रघुकुल के वंशक्रम में भी महान अंतर है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार महाराज दिलीप से श्रीराम तक १८ पीढ़ियों का नाम निर्दिष्ट है वहीं रघुवंशम में केवल ५ पीढ़ियाँ ही बतायी गयी। इसके साथ ही कालिदास के पूर्ववर्ती प्रसिद्ध कवि भास ने रामायण पर आधारित ‘अभिषेक’ और ‘प्रतिमा-नाटकम्’में सीता निर्वासन के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा ।राम राज्याभिषेक के बाद नाटक का समापन होता है ।

कवि स्वातंत्र्य का उपयोग करते हुए भवभूति ने “महावीरचरित” और “उत्तररामचरित” में नाटकीयता लाने के लिए बहुत से परिवर्तन किए और इसलिए इन रचनाओं को महाकाव्य या इतिहास कहने की जगह “नाटक” कहा गया। संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. वी राघवन ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि भवभूति का ‘उत्तररामचरित’और कालिदास के ‘रघुवंशम्’में रामकथा का जो मौलिक स्वरूप है, वह वाल्मीकि रामायण से ज्यादा प्रभावित नहीं है और उसमें सीता परित्याग का वर्णन श्रीराम की मानवीय महत्ता,एक राजा का प्रजारंजन और एक पति का असाधारण त्याग दर्शाकर श्रीराम को महत्तम मूल्य प्रदान करना है।

वैदिक साहित्य के बाद लौकिक साहित्य का उद्भव हुआ, ऐसा माना गया है। अनादि, अकृत और अपौरुषेय वैदिक साहित्य के पश्चात सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण का ही नाम आता है वाल्मीकि ने राम के जीवन कल में ही इसकी रचना की यह निर्विवाद सत्य है। बाक़ी जितनी रामकथाएँ भले ही वो “कंब रामायण” हो, कम्बोडिया की “रामकेर” हो, जैन रामायण हो या फिर उतररामचरित, रघुवंशम जैसे नाटक हों, ये सभी किसी ना किसी तरह की सुनी गयी रामकथा पर आधारित रहे, जबकि महर्षि वाल्मीकि के मामले में उनके श्रीराम के समकालीन होने के कारण वे घटनाएँ उनके सामने हुई और इसकारण वाल्मीकि रामायण में किसी घटना का अपभ्रंश नहीं हुआ।

वाल्मीकि ने देवर्षि नारद द्वारा इंगित करने पर उस समय के योग्य मर्यादा का पालन करने वाले, धर्माचरण करने वाले, सत्यनिष्ठ, महापराक्रमी, गुणों के निधान, प्रजापालक पुरुषोत्तम व्यक्ति का वर्णन अपने काव्य में किया। नारद ने उन्हें कहा था कि वर्तमान में उनका इच्छित व्यक्ति केवल अयोध्या पति राम है जो कि उनकी कसौटी पर खरे उतरते हैं। वाल्मीकि कृत रामायण भारतवर्ष का ऐसा आदिकाव्य है जो अपनी समृद्ध शैली और चरित्रों के मर्मस्पर्शी चित्रण के कारण कितने ही विविध अन्य काव्यों और नाटकों को अपनी यात्रा के लिए पाथेय प्रदान करता आया है।

इसी वाल्मीकि कृत रामायण को आधार मानकर जाने कितने ही नाटकों, ग्रंथों और रामकथा के विभिन्न रूपों की रचना हुईं जिनके लेखकों ने अपनी कल्पना का उपयोग करते हुए रामायण की मूल कथा से निकाल कर कुछ अलग ही रचनायें की, परंतु इस कारण ही ऐसे आसार भी बने कि इन सब दूसरी रामकथा के रूपों में वाल्मीकि रामायण की तुलना में परिवर्तन भी आ गए।

दुष्यंत कुमार ने लिखा था “ सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं  मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।”

उसी तरह इस लेख का उद्देश्य पाठकों पर किसी का अपना निजी मत थोपना नहीं हैं किंतु उन्हें कुछ ऐसे तथ्यों से भी अवगत कराना है जो एक अलग प्रकार का परिप्रेक्ष्य देते हैं और अंत निष्कर्ष को पाठकों के विवेक पर छोड़ देना है कि व्यक्ति स्वयं गंभीर और निष्पक्ष विवेचना के लिए विवश हो जाए कि उत्तरकांड वाल्मीकि रचित है या नहीं।

जो भी निष्कर्ष निकले, उसके निरपेक्ष, श्रीराम हमारे आराध्य थे, हैं और रहेंगे।

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनं । 

मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खलदल गंजनं।।

संदर्भ 

१. गीता दर्शन – स्वामी अखंडानंद

सारे श्लोक वाल्मीकि रामायण के अलग अलग कांड से लिए गए हैं | सभी का संदर्भ श्लोक के अंत में दिया हैं 

 

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