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स्वयं दीप बनें

शुभ दीपावली की कहानी

भोर की प्रथम किरण ने पृथ्वी को अत्यंत स्नेह से स्पर्श करते हुए समष्टि को जागृत किया। नभचर अपने गुंजन से प्रकृति को संगीतमय बनाए जा रहे थे। योग-ध्यान में मग्न संन्यासी ने परम शक्ति को धन्यवाद ज्ञापित कर नव दिवस का शुभारंभ किया।

उस परम तेजस्वी के मुख पर अलौकिक दीप्ति विद्यमान थी। मानो प्रातः का प्रथम प्रकाश लिए देवगण उस पुण्यात्मा को स्वयं अपने कर कमलों से शृंगारित कर स्वयं के भाग्य पर मुग्ध हो रहे हों।

योग ध्यान से निवृत्त होकर  संन्यासी ने अपनी दैनिक दिनचर्या हेतु प्रस्थान किया एवं समीप के ग्राम में मधुकरी के लिए निकल पड़े।

परम आनंद में लीन संन्यासी अपनी गति से अग्रसर होते हुए अचानक ही एक द्वार के सम्मुख विराम लेते हैं और भिक्षा हेतु उच्च स्वर में पुकार उठते हैं ,” जय जय रघुवीर समर्थ ”

भीतर से कोई ध्वनि नहीं आती और पुनः संन्यासी और उच्च स्वर में उपरोक्त वाक्य की पुनरावृत्ति करते हैं, इस बात से अनभिज्ञ कि घर के भीतर अपनी ही आंतरिक समस्याओं के चक्रव्यूह में घिरी हुई माता प्रातः कालीन कार्यों के अन्तर्गत भोजन बनाने से पूर्व  तैयारी स्वरूप चूल्हा पोत रही थीं। दैव जाने किस उलझन में खोई हुई उन महिला ने जब संन्यासी का आह्वान सुना और पुनः वही ध्वनि सुनी तो वह क्रोध से तिलमिला उठीं और अपनी व्यथा को अवाँछित रूप से प्रकट करते हुए जिस वस्त्र से चूल्हा लीप रही थीं, वही पोतना उठाकर संन्यासी के मुख पर फेंक दिया। संन्यासी ने उस पोतने को बिना किसी क्रोध के प्रेम पूर्वक उठाया, बगल में दबाया और उतावले पाँव से चलते हुए नेत्रों से ओझल हो गए। बहुत समय बाद जब महिला का क्रोध शांत हुआ और कार्य समाप्त करके शांत मन से बैठी तो इस घटना को याद करके बड़ी दुखी हुईं, साथ ही साथ संन्यासी से और उसके क्रोध का भाजन बनने की आशंका से भयभीत हो, किसी प्रकार यह घटना अपने पति को बताई।

जब उसके पति ने सारी बात सुनी तो अत्यंत दुखी हुए और पश्चाताप की अग्नि में झुलसने लगे। वह तुरंत बाहर जाकर पता करने लगे कि जो संन्यासी प्रातः काल उनके द्वार पर आए थे, वह वास्तव में कौन थे और किस दिशा से आए थे, किधर को प्रस्थान कर गए। इसी क्रम में उन्हें ज्ञात हुआ कि वह परम तेजस्वी संन्यासी कोई और नहीं बल्कि मराठा सिरमौर श्री शिवाजी महाराज के गुरु परम तेजस्वी समर्थ गुरु रामदास जी थे।यह कितना बड़ा सौभाग्य था कि उनके आंँगन को पावन करने के लिए तेजस्वी से गुरु आए जिन्होंने अपने निपुण हाथों से मेधावी शिवाजी को खड़ा किया था, जो मांँ भारती की अस्मिता की रक्षा हेतु दिन रात सह्याद्री की ऊंची- नीची पर्वत श्रेणियों पर लगातार अपने घोड़े दौड़ाता आ रहा है, जिसमें लोगों ने भारत का भविष्य ढूंढ़ा, उस महान विभूती के पूजनीय गुरु आज उनके द्वार आए परंतु हाय रे दुर्भाग्य कि उन्होंने पहचाना ही नहीं।

पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए दुख से कातर दंपत्ति ने दिन भर में हिम्मत जुटाई और संध्याकाल में गुरु के चरणों में जाकर क्षमा प्रार्थना करने की ठानी। नेत्र के अश्रुजल से उनके चरण पखारेंगे ऐसा विचार कर दोनों प्राणी संध्या के समय आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं। वहाँ का दृश्य बिल्कुल ही अचंभित करने वाला था। चारों ओर सन्नाटा छाया था शिष्य गुमसुम से बैठे थे। वातावरण में पूर्णत: नीरवता छाई हुई थी। दंपत्ति ने ग्लानिमग्न होते हुए गुरुदेव के विषय में पूछा तो एक शिष्य ने बताया कि,”आज प्रातः से ही गुरुदेव भिक्षाटन के लिए नगर में निकले थे किंतु शीघ्र ही लौट आए और कक्ष में जाकर द्वार भी बंद कर लिया। उस समय से अब तक द्वार खुला ही नहीं हम सब भी प्रतीक्षारत ही बैठे हैं।” दंपत्ति वही शांतिपूर्वक बैठ गए। देर रात गए तक द्वार नहीं खुला तो शिष्यों की सूचना पर शिवाजी महाराज पधारे और मन ही मन गुरु की आज्ञा ले धीरे से द्वार खोला।

द्वार खुलते ही कक्ष का दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित सभी प्राणी आश्चर्यचकित रह गए। कक्ष का कोना-कोना दीप से जगमग हो रहा था। पूरा कक्ष प्रकाशित था। गुरुदेव शांत चित्त बैठे हुए थे, मुख पर नीरव आनंद झलक रहा था। शिवाजी ने आश्चर्य से पूछा,” गुरुदेव! क्या कारण है? कैसा उत्सव है? यह दीपोत्सव क्यों?” गुरुदेव ने उसी शांत भाव से उत्तर दिया,”शिवा!आज प्रातः प्रभु नारी रूप में मेरे सम्मुख आए और मेरे ऊपर पोतना फेंका, कदाचित वह मेरी परीक्षा लेना चाहते थे परंतु शिवा! प्रसन्नता की बात कि मुझे तनिक भी क्रोध नहीं आया। मैंने वह पोतना लिया धोया और आसन बनाकर ध्यान में बैठा तो परम आनंद में मगन हो गया। मैं उसी परम आनंद का उत्सव मना रहा हूंँ।”

धन्य हैं ऐसे गुरु जिन्होंने आत्मज्ञान के प्रकाश से पीढ़ियों का जीवन प्रज्ज्वलित किया।

‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ की स्थापना के समय महामना मदन मोहन मालवीय जी ने  हैदराबाद के निजाम द्वारा दिए गए जूते को नीलाम करके चंदा की व्यवस्था की। उन्होंने अपनी महानता का ही परिचय दिया कि परिस्थिति कोई हो, कार्य संपूर्ण हो और हृदय आनंदित हो।

चाहे वह समर्थ गुरु रामदास हो या मालवीय जी ऐसे अनेक महापुरुषों ने अपनी आत्मा के दीपक को जलाया और उसके प्रकाश से अपने भीतर स्थित गुणों और दुर्गुणों का दर्शन किया, चिंतन किया और सकारात्मक दिशा में समाजोपयोगी प्रयास किया।

दूसरी ओर आत्मदीप के प्रकाश से पूरित मन और बुद्धि से समाज के सुख-दुख का अवलोकन किया। वहांँ की कमजोरियों,आदर्शों,परंपराओं का अध्ययन किया और अपने तेजस,ओजस,मेधा और पुरुषार्थ का संपूर्ण उपयोग करके समाज उत्थान एवं राष्ट्र उत्थान का सही दिशा में मार्गदर्शन करते हुए नए आयाम रखें। भगवान बुद्ध ने सूत्र दिया था “अप्प दीपो भव” अर्थात आप अपना दीपक स्वयं हैं। यदि देश समाज और परिवार की स्थिति बदलना चाहते हैं; उन्हें उच्चता के शिखर पर पहुंँचाना चाहते हैं;आप चाहते हैं कि आप एक आदर्श स्थापित करते हुए अपने समाज और देश को नई ऊंँचाइयों पर ले जाएंँ तो सबसे पहले स्वयं को सँवारिए। अपने अंदर की शक्तियों को साथ लीजिए,अपनी आत्मा के दीपक को प्रज्ज्वलित कीजिए और फिर वही आलोक आपकी दुर्गम यात्रा में भी पथ प्रदर्शन अवश्य करेगा।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर के अतिरिक्त और कहीं नहीं गए। काली की पूजा स्थली को ही आत्म स्थान का केंद्र बना लिया और जब वह परमहंसी स्थिति को प्राप्त हो गए तो लोग दूर और सुदूर से स्वयं उनके पास खींचे चले आते थे। उनका जीवन उस सहस्त्रदल कमल के समान खिल उठा था जो स्वयं बगिया को छोड़कर किसी भ्रमर को बुलाने नहीं जाता अपितु भ्रमर स्वयं उसके सम्मुख खींचे चले आते हैं। परमहंस सीधे सरल उत्तरों द्वारा सभी को संतुष्ट करके ही लौटाते थे।

तो आइए इस दीपावली के पावन अवसर पर हम भी इस सूत्र को थामें “अप्प दीपो भव” और अपने आत्मदीप के प्रकाश से परिपूर्ण हों। यदि यह संभव हुआ तभी हम वर्तमान देश की, समाज की परिस्थितियों को प्रसन्नता पूर्वक परिवर्तित करने में अपनी सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभा पाएंँगे। एक जलता हुआ दीपक अनेक प्रेरणाओं को जन्म देता है। एक दीपक की प्रज्ज्वलित ज्योति अनेक दीपकों को प्रज्ज्वलित करती है। सैकड़ों दीपक जलने के बाद भी उस एक दीपक के प्रकाश में कोई कमी नहीं पड़ती और उसके प्रकाश से अंधेरे को भगाना नहीं पड़ता बल्कि दीपक के जलते ही अंधेरा स्वयं भाग जाता है। एक दीपक स्वयं जलकर सबको प्रकाश दे जाता है अर्थात स्व का शनै: शनै: बलिदान करके ही विश्व को प्रकाशित किया जा सकता है। दीपक स्वयं जलकर भी बदले में कुछ नहीं मांँगता,पतंगें स्वयं आकर उसकी लौ में जल जाते हैं किंतु वह स्थितप्रज्ञ रहता है और अंत तक जलता रहता है।

आइए ! इस दीपोत्सव की शुभ बेला में हम भी जलते दीपक के समान इन संदेशों को धारण कर अपने जीवन को अनंत प्रकाश से भर आनंद के सागर में अवगमन करें और अपने संपूर्ण व्यक्तित्व को राष्ट्रहित में समर्पित करें। श्री अरविंद ने कहा है,”लाइट डिवाइन लीड टू लाइफ डिवाइन” अर्थात दिव्य प्रकाश दिव्य जीवन की ओर ले जाता है।

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