परंपराओं में शक्ति बल का इंगन है पुरुषार्थ की इकाई है । शक्ति वो चेतना है जो ब्रह्माण्ड के में जड़ में घुली हुई है और उसी को जब अपने बल का बोध हो जाता है तो वो कभी ओम यानी प्रणव अक्षर के “मकार” के रूप में अपने प्राकट्य से साधारण को विशेष कर देती है|।
अर्धचंद्र रूपी मात्रा की स्फूर्ति बन जब शक्ति , साधारण व्यंजन शब्दो पर अलंकृत होती है तो “उ” को “ॐ” बना देती है जो सभी कामनाओं को पूर्ण करता है। यही सृष्टि के उद्भव की कारक शब्द स्वरूपा शक्ति है जो बीज रूप में हर ज्ञान का मूल है।
यही चेतना जब अपनी इच्छा से प्रकृति बन सृष्टि के सृजन –पालन – विनाश के लय रूप मे विदित होती है तो महादेवी कहलाती है।
शास्त्र सम्मत हैकि
” सृष्टिस्थिति विनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नाराय णि नमोस्तुते।
– तुम सृष्टि, पालन और संहार की श क्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार त र्था सर्वगुणमयी हो हेनारायणि! तुम्हें नमस्कार है।
नवरात्रों भारतीय समाज में शक्ति पूजा के लिए विशिष्ट स्थान रखते है
आदिशंकराचार्य विरचित ’सौन्दर्य लहरी’ में माता पार्वती के पूछने पर भगवान शंकर नवरात्र का परिचय देते हुए कहते हैं कि-
‘नवशक्तिभिः संयुक्तं, नवरात्रं तदुच्यते।
एकैवदेव देवेशि, नवधा परितिष्ठिता’
– अर्थात नवरात्र नौ नवीन शक्तियों से संयुक्त है। नवरात्र के नौ दिनों में प्रतिदिन एक शक्ति की पूजा का विधान है।
इसके अनुपम कल्याण के कारण इसे दुर्गा पूजा अर्थात कठिन पूजा भी कहते है।
इसमे देवी का चिंतन त्रिनेत्रा या बिल्व पत्र रूप में करते है जो उनके ज्ञानरूप का परिचायक भी है।आमंत्रण, घट स्थापना, अधिवास, केला बउ , पुष्पांजलि जैसे मनोहर प्रथाओ के अलावा
पूजा प्रारंभ के संबंध में प्रचलित उपाख्यान
राम की शक्तिपूजा
प्रसंग :- शरत कालीन पूजा का संबंध राम के श्री राम बनने से जुड़ा है जो वामपंथी सुन नही पाते ।
राम जब शक्ति वियोग से पीड़ित रावण से धर्म युद्ध कर रहे थे तब वो यह देख आश्चर्य में रह गए कि महासिद्धिया कवच बन रावण की रक्षा कर रही है। इस घटना ने राम को निराश से ज्यादा क्षुब्ध कर दिया जो उनकी प्रकृति नही थी।
क्योंकि कहते है ना
“कुपुत्रो जायेत , क्वचिदपि कुमाता न भवति”
और माता पुत्र की रक्षा के लिए क्या क्या करती है उसके लिए शब्द कम पड़ेंगे..
“ परंपरागत रूप से शक्ति पूजा वसंत में होती थी जब सूर्य उत्तरगामी होते थे और प्रकृति शुभ लक्षण से युक्त धनधान्य से परिपूरित , देविस्वरूप हो समाज को सम्पन्न करती है”।|
इसके ठीक उलट जब राम ने शक्ति पूजा का निर्णय किया को प्रकृति अपने निद्रा रूप में जाने को उद्धृत होती है, अपनी सारी छटाओं को समेट कर.
” ऊँ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्।
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजस: प्रभु:।
– जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरुप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं,
उन्हीं भगवती निद्रा देवी की राम स्तुति करने लगे.
इसीलिए इस पर्व को नव रात्रि या “नवीन रात्रि” भी कहते है
इसी को “आगोमोनी” अर्थात “आगमन” कहते है
आगे राम का शास्त्रीय अनुष्ठान, राम की परीक्षा और शक्ति का महालक्ष्मी रूप में राम में विलय हो उनका श्रीराम बनना भी राम का पुरुषार्थ है।
शक्ति की राम पूजा
इसे शक्ति की राम पूजा भी कहा जा सकता है क्योंकि राम ने समाज मे मातृ पक्ष का उग्र रक्षण किया, फिर चाहे वो गौतम पत्नी अहिल्या, सुग्रीव पार्टी रूमा या शबरी हो…
तो इस पद्धत्ति की स्थापना हेतु यदि शक्ति ने राम का सुकोमल और श्रेष्ठ व्यक्तित्व चुना तो आश्चर्य नही होना चाहिए
और पराशक्ति कह उठी..….
– “होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन, कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।”
दूसरा प्रसंग
एक दूसरी मान्यता के अनुसार निसहाय देवताओं के आव्हान पर देवी अपने सर्व-सम्पुट रूपः में प्रकट हुई और महिसासुर मर्दन किया। देवी का वह रूपः जहा अपने शत्रुओं के लिए अति प्रचंड और विध्वंसक था, वही शुभ कर्म करने वालो के अति मंगलकारी। सृष्टि के सभी गुण- तत्व-रूप से युक्त देवी ने प्रकट सभी शस्त्रों से सुसाज्जित हो आक्रमक ढंग से अपनी संतति रक्षा की।
वर्णनातीत है
“शरणागत-दीनार्त-परित्राण-परायणे,
सर्वस्यार्तिहरे देवि! नारायणि! नमोस्तुते।’
– शरणागत-दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में उद्विग्न तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवी !
आपको नमस्कार है ।
(Note :- उल्लेखनीय है यहा देवी का चिंतन नारायणी यानी नरो के त्राण नाशक नारायण की पराशक्ति रूप में किया गया है और देवी तो है ही चिन्त्य रूपेण!)
और प्रचलित संदर्भ
सृष्टि संचालिका आदिशक्ति की नौ कलाएं (विभूतियां) नवदुर्गा रुप हैं। आदिशक्ति का अवतरण सृष्टि के आरंभ में हुआ था,कभी सागर की पुत्री सिंधुजा-लक्ष्मी रुप तो कभी पर्वतराज हिमालय की कन्या अपर्णा-पार्वती के।
तेज, द्युति, श्रद्धा, क्षमा,दीप्ति, ज्योति, कांति, प्रभा और चेतना तथा जीवन शक्ति संसार देवी का ही दर्शन होता है।
भारतीय मन ने नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखा है।
भारतीय परंपरा में नवरात्रों के महत्व
नवरात्रों का भारतीय संस्कृति से वही संबंध है जो तन का इंद्रियों से। तभी हर सभ्यता के चरमोत्कर्ष पर अंतिम परिणाम और बोधगम्य के लिये शक्ति की ही अभिष्टि करने प्रावधान रहा।
चाहे वो महिष्मर्दन हेतु देवासुर संग्राम के बाद ,पांडवो का महाभारत से पूर्व, या सबसे प्रमुख राम की शक्तिपूजा।
शक्ति पक्ष के और अन्यान्य प्रयोग
देवी पक्ष का बस वैदिक ही नही शास्त्रीय , यौगिक और तांत्रिक महत्व भी भी है। जहाँ सम्पूर्ण भारत मे अष्टमी नौमी तिथियों को विद्यारम्भ , शास्त्र पूजा के लिए सर्वसिद्ध मानते है वही डामर तंत्र में कहा गया है
कि जैसे यज्ञ में अश्वमेध है वैसे ही स्तोत्रों में शप्तसती।
योग साधना में भी दिनों के अनुसार शक्ति रूपो का स्थापत्य जीन चक्रों में है, उनकी सिद्धि उस दिन अष्टांग मार्ग अर्थात जप , नियम, शौच आदि संस्कारो की संकल्पनुसार क्रियान्वयन द्वारा की जाती है।
नवरात्र में साधक स्वयं के आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति संचय के लिए अनेक प्रकार के व्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग-साधना आदि करते हैं।
आखिर में उल्लेखनीय है कि नवरात्रि आत्मनिरीक्षण और शुद्धि का अवधि है और पारंपरिक रूप से नए उद्यम शुरू करने के लिए एक शुभ और धार्मिक समय है तो इसका लाभ उठाएं।
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