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महाभारत – पृष्ठभूमि तथा परिपेक्ष्य

महाभारत में श्री गणेश जी की भूमिका अत्यधिक प्रसिद्ध है। इसके रचयिता श्री व्यास जी एवं लिपिकार श्री गणेश द्वारा की गयी चर्चा महाभारत के सबसे प्रसिद्ध अध्यायों में से एक है। किन्तु महाभारत के परिप्रेक्ष्य एवं इसकी प्रासंगिकता के संदर्भ में यह प्रतिबिंबित नहीं हो पाया है। श्री व्यास जी एवं श्री गणेश की चर्चा का सौन्दर्य महाभारत के परिप्रेक्ष्य की पारदर्शिता को दिखा पाने में असमर्थ रहा है।

महर्षि व्यास केवल उच्च कोटि के महर्षि ही नहीं थे, अपितु एक सुभाषित कवि भी थे। वह अपने ही जीवनकाल में अपने वंश के विनाश एवं पूर्ण रूप से नष्ट होने के साक्षी थे एवं अपने पौत्रों, कौरवों व पांडवों के बीच हुए महायुद्ध के विनाश की त्रासदी से श्री व्यास जी द्रवित हो गए थे।

इन सभी कारणों से संभवत एकमात्र वही व्यक्ति थे जिनके पास जीवन के सार्वभौमिक तत्वों का एक विशाल अनुभव भी था एवं उनको व्यक्त कर पाने की ऐसी कला जो सर्वकालीन मनुष्य के दिलों को छू सके। यह स्वाभाविक था कि उन्होंने मानव जाति के हित के लिए, इस महान त्रासदी पर एक महाकाव्य की रचना करने के बारे में विचार किया। उन्होंने एक ऐसे महाकाव्य की रचना की जो समय की कसौटी पर वास्तविक लगता है, जिसे हम जया, अंतत महाभारत कहते हैं ।

श्री व्यास जी अत्यंत करुणामय थे एवं युद्धरत क्षत्रियों के दोनों पक्षों को समान चिंता, प्रेम एवं स्नेह के साथ देखते थे । अपने पौत्रों के गुण, दोष एवं मूर्खतापूर्ण निर्णयों का उनको पूर्ण भान था, जिसके परिणामस्वरूप यह युद्ध हुआ एवं वंश का पूर्ण विनाश हुआ था।

उस त्रासदी पर महर्षि के विचारों ने उन्हें मानव जाति एवं मानवता को समझने के लिए व्यापक अंतर्दृष्टि प्रदान की। महर्षि उस मानव जाति, जो धर्म या अधर्म को समझ कर उसके अनुरूप व्यवहार करने में असमर्थ थी, के लिए सहानुभूति रखते थे। किन्तु उनका यह विचार भी स्पष्ट था कि यह धर्म ही था जो मानवता का उत्थान कर सकता था। महाभारत में महर्षि करबद्ध होकर धर्म के उत्थान के लिए मानवता से याचना करते हैं। महर्षि विषाद में थे क्यूंकि समाज धार्मिक विवहक की क्षमता खो रहा था।

उन्होंने अपनी इसी अंतर्दृष्टि को महाकाव्य में परिवर्तित कर दिया। यधपि अपने स्वयं के मन में, महर्षि इस महाकाव्य की कल्पना और रचना पहले ही कर चुके थे। किन्तु, इस महाकाव्य को एक लिखित रूप से इस संसार में प्रस्तुतीकरण हेतु कौन उपयुक्त होगा और कितना समय लगेगा इसके बारे में वह अनिश्चित थे।

उनकी यह दुविधा का ज्ञान होने पर भगवान ब्रह्मा स्वयं एक बार महर्षि को आशीर्वाद देने उनके आश्रम पधारे। महर्षि व्यास ने ब्रह्मा जी के समक्ष अपनी दुविधा प्रकट की जिसके उत्तर में भगवान ब्रह्मा ने भगवान गणेश के नाम की और इंगित किया और कहा कि इस कार्य हेतु व्यास जी को गणेश जी की तपस्या करनी होगी और उनको प्रसन्न करना होगा।

यह समानता आप सभी प्राचीन महाकाव्यों में देख सकते हैं। गंगा को देवलोक से पृथ्वी पर अवतरित होने का ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त होने के पश्चात भी महाराज भगीरथ को भगवान शिव की अनन्य तपस्या करनी पड़ी थी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गंगा अपनी प्रचंडता से पृथ्वी के पतन का कारण ना बने। प्राचीन काल में हर एक महान उपलब्धि के लिए विशेष प्रार्थना एवं तपस्या का आयोजन किया गया था।

ब्रह्मा जी के आदेशानुसार महर्षि व्यास अपने आश्रम में अपने प्रिय वृक्ष के नीचे आसन लगाकर गणपति का ध्यान करते हैं। क्या यह संभव था कि महर्षि व्यास के आह्वान पर देव प्रकट ना हों? कुछ ही क्षणों में हमारे विघ्नकर्त्ता, विघ्नहर्ता गणपति प्रसन्न होकर प्रकट होते हैं ।

अनन्य भक्तिभाव के साथ व्यास जी उनका स्वागत करते हैं एवं उन्हें उसी वृक्ष के नीचे आसन ग्रहण करने का निवहदन करते हैं जिस स्थान पर महर्षि व्यास ने अपना सम्पूर्ण जीवन तपस्या और वहदों की रचना में व्यतीत किया था। तत्पश्चात श्री व्यास गणपति के समक्ष अपनी मनोकामना का उल्लेख करते हैं। श्री गणेश, महर्षि द्वारा लिपिकार का कार्य ग्रहण कर अत्याधिक प्रसन्न होते हैं । इस सन्दर्भ में श्रीगणेश द्वारा महर्षि के समक्ष प्रस्तुत चुनौती के बारे में सभी को ज्ञात है। गणपति निवहदन करते हैं कि महर्षि को अपना सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्रदर्शित करना होगा एवं यह भी ध्यान रखना होगा कि वह श्री गणेश को एक पल भी विराम न दें। यदि ऐसा प्रतीत हुआ तो श्री गणेश के पास इस कार्य को अधूरा छोड़ने के अतिरिक्त विकल्प नहीं होगा एवं यह महाकाव्य अपूर्ण ही रहेगा।

प्रतीत होता है कि श्री गणेश अधीर थे किन्तु वह इस महाकाव्य को लिपिबद्ध करने के साथ इसका आनंद भी प्राप्त करना चाहते थे । यधपि ऐसा भी स्वीकार किया जा सकता है की गणपति के कारण ही व्यास जी ने अपना सर्वश्रेष्ठ ज्ञान संसार के सामने प्रस्तुत किया। इस चुनौती ने विशिष्ट रूप से महाभारत को एक ऐसा रूप दिया जो अन्यथा भिन्न भी हो सकता था । ऐसा प्रतीत होता है कि इस चुनौती के माध्यम से एक बाधा उत्त्पन्न की जा रही थी , किन्तु यथार्थ में गणपति बाधाओं का उन्मूलन कर रहे थे।

व्यास जी जानते थे कि गणपति के साथ यह कार्य सुलभ और सहज नहीं होगा एवं इस बाधा का समाधान खोजना आवश्यक था। श्री व्यास जी, गणपति की चुनौती स्वीकार करते हैं, किन्तु निवेदन करते हैं कि गणपति प्रत्येक शब्द का सन्दर्भ, अर्थ और कथा वृत्तांत की पृष्ठभूमि का महत्त्व, पर्याप्त रूप से समझे बिना इसे लिपिबद्ध नहीं करेंगे।

इस प्रकार महर्षि को निश्चित रूप से सार्थक तथापि जटिल, व्यावहारिक एवं कालातीत श्लोकों की रचना करने के लिए पर्याप्त समय प्राप्त हो जाता। अतः महर्षि ने ऐसे सुरूप, भावनात्मक एवं दुष्कर श्लोकों को जन्म दिया जिनको गणपति को समझने के लिए व्यास की तुलना में अधिक समय व्यतीत होता था।

श्री गणपति के मुख पर बालसुलभ मुस्कान विधमान थी। उनको प्रतीत होने लगा था कि इस प्रकार वह महर्षि पर विजय प्राप्त नहीं कर पाएंगे एवं वह दोनो इस महाकाव्य की रचना एवं लिपिबद्ध करने में ही व्यस्त रहेंगे। इस महाकाव्य के रचनाकाल में विचारशील रचना एवं चिंतनशील लेखन का महान द्वंद्व उनके मध्य निरंतर ऐसा चलता रहा जैसे एक महानदी का प्रवाह हो।

गणपति के पास विराम देने, मनन करने एवं यदा-कदा काव्य की प्रशंसा में लीन हो जाने के अतिरिक्त विकल्प नहीं था और इसी कारण श्री व्यास जी को अपनी रचना को अद्भुत बना देने लिए पर्याप्त समय एवं अवकाश मिलता रहा। परिणाम स्वरुप वर्तमान में भी महाभारत प्रासंगिक है तथा वाचक एवं श्रोताओं के मन में धर्म का आह्वान करने के साथ-साथ नए परिपेक्ष्य भी प्रस्तुत करता है।

गणपति द्वारा श्री व्यास के समक्ष विराम नहीं देने की चुनौती, एवं श्री व्यास जी द्वारा अनुरोध स्वीकारते हुए यह निवेदन करना कि गणपति जी श्लोकों की जटिलता तथा व्यावहारिकता के गहन अध्ययन पश्चात ही लिपिबद्ध करेंगे, मात्र एक कथा नहीं है। यह इस बात का भी एक रूपक है कि किस प्रकार व्यवहारिक कालातीत महाकाव्यों का जन्म होता है ।

गणपति इस कार्य के प्राप्तकर्ता का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनको ऐसा कार्य प्रदान किया गया जो अत्यंत मोहक एवं आकर्षक है, उनका ध्यान आकर्षित करता है एवं उनकी लय-ताल अनुरक्षण करने में समर्थ है। यदि आप पुरातन भारत की महान रचनाओं का अवलोकन करेंगे तो आप सभी रचनाओ को इस प्रकार का ही पाएंगे।

वह समाज को संयोजित करते हैं एवं पूरे आख्यान को एक ऐसी लय में प्रस्तुत करते हैं जो श्रोताओं को लुभाती है, एवं पूरी तरह प्रफुल्लित करती है। वह समाज के दैनिक जीवन में परिवर्तन लाने के साथ नवनिर्माण का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं एवं पृथक विचारों के लिए प्रेरित करते हैं।

भारतीय परंपरा में एक साधारण लिपिकार से भी एक अपेक्षा होती है। एक लिपिकार समाज के पाठक / श्रोता, दर्शकों का प्रतिनिधित्व करता है, भारतीय परंपरा में जिसे बहुधा “रसिका” कहा जाता है। लिपिकार को अपने कार्य को लिपिबद्ध करने से पहले, कार्य को मन में संयोजित करना पड़ता है। वह समाज जो ऐसे लेखकों, पाठकों, रसिकों का पोषण करता है, जिनके पास सम्मान, प्रशंसा एवं आंतरिक रूप से धैर्य रखने की क्षमता है, वह समाज महर्षि व्यास सामान रचियताओं को जन्म दे सकता है ।

एकमात्र इस प्रकार की संस्कृति एवं समाज ही श्री व्यास जी को उनके मन की गहराई में बसने वाले उस काव्य को उपयुक्त दिशा तथा आकार देने के लिए स्थान दे सकती थी। इस प्रकार की संस्कृति एवं समाज ही “किसी व्यास” को अपनी अंतर्दृष्टि को एक ऐसे महाकाव्य में परिवर्तित करने की प्रेरणा प्रदान कर सकते हैं जो वर्तमान में भी प्रासंगिक हैं।

प्रत्येक व्यास को अपनी महाभारत के इस संसार में अवतरण हेतु एक ऐसे गणपति की आवश्यकता होती है – जो कवि को एक महान काव्य रचने की प्रेरणा प्रदान करे, किन्तु साथ ही उस काव्य की पृष्ठभूमि और सामयिकता का मर्म समझ कर अपने व्यास की कल्पना को यथार्थ में परिवर्तित कर सके। महान कार्यों की अपेक्षा हेतु किसी भी संस्कृति या सभ्यता को ऐसे बोझ के पक्ष में सदैव तत्पर रहना चाहिए, एवं आनंदित होना चाहिए।

श्री गणेश की लिपिकार के स्वरुप में विकल्प की कामना भी आश्चर्यजनक ही है – वह विघ्नकर्त्ता एवं विघ्नहर्ता दोनों हैं, जो बाधा उत्पन्न करते हैं एवं उसका उन्मूलन भी करते है। इसी विपरीतता में उनकी महानता उभरती है। श्री व्यास को निर्माण की उसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है जिसकी अपनी ही लय-ताल एवं गतिशीलता है। आपको सुंदरत, महानत, एवं शाश्वत रचना के लिए यह अग्नि परीक्षा देनी ही होगी। महाभारत एक उच्चतम निर्मिति है एवं हम सभी ने देव इत्यादि को भी महाकाव्यों एवं पुराणों में, किसी वास्तविकता को आकार देने या एक रचना हेतु तपस्या करते हुए देखा है।

यहाँ यह भी ध्यान रखना रोचक है कि महर्षि व्यास ने, उपयुक्त समय के आगमन तक, जया के सार्वजनिक गायन/ पाठन को निषेध घोषित किया हुआ था। इस महाकाव्य की रचनाकाल के समय अनेक व्यक्तित्व, जो महाभारत के महत्वपूर्ण पात्र थे, जीवित थे। वर्तमान समय कहीं इस महाकाव्य से प्रभावित न हो, इस कारणवश समाज को सही समय की प्रतीक्षा करनी पड़ी।

यह अंतिम परिणाम के लिए दिए गए महत्व को दर्शाता है। रचना चाहे कितनी भी सुंदर क्यूँ न हो, उसके प्रदर्शित होने का एक निश्चित समय होता है एवं हमें इसकी प्रतीक्षा करनी होती है, जो उस दुष्कर तप का एक अंश ही है। हमें अपनी रचना की सुंदरता या आकर्षण में खोना नहीं है क्यूंकि उस रचना का अंतिम प्रभाव ही अधिक महत्वपूर्ण है।

The present article is a translation of Shivakumar GV‘s piece titled ‘Mahabharata- The Making of a Mahakavya‘.

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